मेरी यादों की गिलहरी- संजय शेफर्ड

गांव से दूर एक छोटा सा कच्ची मिट्टी का घर था। उस घर के बगल में एक छोटा सा ऑनियन ट्री। जिसके आसपास अक्सर एक गिलहरी घुमा करती थी। सर्द हो, गर्मी, या फिर बरसात। वह हर मौसम में आती थी। थोड़ी देर तक उझल- कूद करती और चली जाती थी।
उसी गांव में भूरे बालों वाली एक सुन्दर सी लड़की भी रहती थी। जिसे लोग गोल्डन गर्ल कहा करते थे। उसकी आंखें गहरी काली थी, भौहें हल्की- हल्की लाल, और पैर बेहद ही छोटे। वह अपने नन्हें कदमों से चलती हुई प्रतिदिन आती। गांव से बाहर बने उस घर के पीछे से छुपकर। उस ऑनियन ट्री के नीचे उझल- कूद करती गिलहरी को देखती रहती थी।
इसी तरह से देखते हुए गर्मी और बरसात के दो सेशन बीत गए। सर्दियां के दस्तक देने की आहट जैसे ही सुनाई दी। उस लड़की के लिए रंग- बिरंगे स्वेटर बुनें जाने लगे। लड़की पहले खुश हुई फिर उदास हो गई। उसकी उदासी में एक कच्ची मिट्टी का घर, एक छोटा सा ऑनियन ट्री, एक गिलहरी भी धीरे- धीरे शामिल होने लगे।
शुरू में घर के लोगों को कुछ समझ में नहीं आया। बाद में लड़की की उदासी और गहरी होती गई तो घर के लोगों को भी चिन्ता होने लगी। फिर भी किसी को नहीं पता चल पाया कि उसकी उदासी की वज़ह ''रंग'' हैं। और लड़की की उदासी और भी बढ़ती गई। उसके बालों से बसंत गायब होने लगा। उसकी सुंदरता में मायूसी घुलने लगी।
रंग भला उदासी की वज़ह कैसे बन सकते हैं ? गिलहरी ने ऑनियन ट्री से पूछा। ऑनियन ट्री ने कच्ची मिट्टी के घर से और कच्ची मिट्टी के घर ने उस भूरे बालों वाली सुन्दर लड़की से। लड़की ने कोई जवाब नहीं दिया। गांव में वापस जाकर खुदको एक कमरे में कई दिनों के लिए बंद कर लिया। और जब बाहर निकली तो उसकी उम्र कई गुना बढ़ चुकी थी।
वह दौड़ी- दौड़ी वापस आई। महज़ तीन दिन के दरमियान कच्ची मिट्टी का घर ढह चूका था। ऑनियन ट्री ने अपनी उम्र खो दी थी। और वह गिलहरी दूर- दूर तक कहीं दिखाई नहीं दी। महज़ एक लम्हें की उदासी के चलते उस भूरे बालों वाली लड़की का प्रेम और प्रेम के सारे गवाह मर चुके थे।
आखिर हम इंसान भला क्यों नहीं समझ पाते कि जिन्हें हम प्यार करते हैं उनकी उम्र हमसे सैकड़ों गुना छोटी होती है। उनके भाग्य में हमारी तरह लम्बा इन्तजार नहीं लिखा होता। वह अपनी उम्र महज़ लम्हें, दो लम्हें में खो देते हैं ...
आखिर हम सबने अपना- अपना प्यार ऐसे ही तो खोया है ?


संजय शेफर्ड की कहानी दहलीज़

यह लड़कियां भी ना ? ना जाने किस परिवेश और संस्कार में पलती- बढ़ती और बड़ी होती हैं ? एक अधेड़ व्यक्ति ने खुदसे मन ही मन में प्रश्न किया और उस चौदह वर्षीय लड़की की आवश्यकता से थोड़ी ऊंची उठ रही स्कर्ट के अंदर झांकने की कोशिश की। लड़की उस अधेड़ व्यक्ति की नज़रों को भाप थोड़ी सकपकाई और असहज महसूस करते हुए करीब छह इंच की दूरी बनाते हुए बगल में खड़ी हो गई। अब उस अधेड़ की नज़र सीधे- सीधे लड़की की छातियों के आसपास से घूमती हुई कुछ देर बाद लड़की के उन उभारों पर जा टिकीं जहां एक अधोवस्त्र के आलावा कुछ भी नहीं था। लड़की की सकपकाहट बेचैनी में परिवर्तित होने लगी थी और असहजता बौखलाहट का रूप लेकर अब फूटे की तब फूटे। परन्तु वह अधेड़ उस लड़की की इन तमाम स्तिथियों से बेखबर उसकी देह के तमाम हिस्सों में अपनी नज़र इस कदर गड़ाए जा रहा था कि मानों उसकी देह के तमाम छिद्रों को अपनी वासना से ढूस देगा। लड़की की मानसिक व्यथा बढ़ने के क्रम में दैहिक पीड़ा में परिवर्तित होने लगी। लड़की को लगा उसके देह के तमाम छिद्रों में एकाएक किसी ने हजारों की संख्या में तलवार घुसेड़ दिया है। उसके देह की कराह चीख में परिवर्तित होकर उठी और उसके मन की कब्र में जा समाई।
सही मायने में यह स्तिथि लड़की के संयम के दायरे से बाहर की थी फिर भी लड़की अपने अथाह दर्द और उफनते आवेग पर कायम रखते हुए थोड़ी और दूरी बनाकर खड़ी हो गई। पर उसे यह दूरी उस अधेड़ की नज़र से ज्यादा नहीं ले जा पाई। इस बार उसकी नज़र लड़की के वक्ष से नीचे उतर नाभि के इर्द-गिर्द ही टिकी हुई थी। लड़की ने उस अधेड़ की चुभती हुई नज़र को दूबारा जैसे ही अपने नाभि में महसूसा, साथ ही यह भी महसूसा कि अब यह नजरें नाभि के नीचे उतरने की कोशिश करेंगी उसकी बंद मुठ्ठियां खुली और एक जोरदार तमाचे की आवाज पूरे ठसमठस भीड़ भरी बस में गूंज पड़ी। किसी को कुछ समझ में ना आए इसका तो सवाल ही नहीं था। इस तरह की घटनाएं आये दिन दिल्ली के बसों में होती रहती हैं। करीब बीस सेकेंड तक पूरे बस में शांति छाई रही उसके बाद धीरे-धीरे कुछ आवाजें अपना-अपना मुंह खोलने लगी।
मारों साले को मारों, लड़की को ताड़ता है, तेरी मां- बहन नहीं है। इतना सुनते ही मानों भीड़ का पूरा का पूरा जत्था उस अधेड़ युवक पर टूट पड़ा। दो मिनट के अंदर उस पर कितने लात- जूते पड़े होंगे उसे इस बात का अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता है। लोगों की मार से उसके शरीर के तमाम हिस्से ज़ख्मी हो गए थे। उसके होंठ कट गए थे और नाक से खून टपक रहा था। लेकिन आश्चर्य की बात यह कि वह व्यक्ति जरा भी भागने का प्रयास नहीं किया। इतनी मार खाने के बाद भी जस का तस बस की सीट पर ही पड़ा रहा। दूसरी तरफ लड़की जोर-जोर से सिसक रही थी। उसके आसपास कई औरतों की भीड़ जमा हो गई थी। कोई उसके बालों में हाथ फेरते हुए सन्तावना के स्वर में यह कह रहा था कि चुप हो जा बेटा- चुप हो जा। कोई उल्टे उसके पहनावे को दोषी ठहराते हुए कह रहा था इस तरह के कपडे पहनती ही क्यों हो जब सती - सावित्री बनती हो ? जितने मुंह उतनी बात ! कोई कुछ कह रहा है तो कोई कुछ ! लोगों की कहा सुनी, आपस की घुसर-पुसर के मध्य यह तिहत्तर नंबर की बस निर्माण विहार के स्टैंड पर जैसे ही पहुंची वह लड़की बस से उतर गई।
सिर्फ एक स्टेशन के बाद मुझे भी बस से उतरना था। उस लड़की के बस से उतरने के बात यात्रियों की आपसी सुगबुगाहट थोड़ी और तेज हो गई। कहा सुनी, आपस की घुसर-पुसर का स्वर धीरे-धीरे और ऊंचा उठने लगा। जो घटना महज़ पांच मिनट पहले एक घटना थी अब वह इंटरटेनमेंट से ज्यादा कुछ नहीं रह गई थी। इस बस में मैं करीब साल भर से सफ़र कर रही हूं। बस में अक्सर इस तरह की छेड़छाड़ की घटनाएं होती ही रहती हैं। और मेरे ही साथ क्या पब्लिक या फिर प्राइवेट बस में चलने वाली हर लड़की के साथ होती ही रहती हैं। फिर धीरे-धीरे यह घटनाएं रोजमर्रा यात्रा करने वाली लड़कियों या महिलाओं के रूटीन की एक हिस्सा बन जाती हैं। अब भला कामकाजी महिलाएं और लड़कियां करें भी तो क्या करें, सामान्य तरीके से अगर समझाने की कोशिश करें तो यह मनचले पीछे पड़ जाते हैं और असामान्य तरीके से समझाएं तो उनके जान पर ही बन आती है। भरी भीड़ में ही कब किस हरकत पर उत्तर आएं। और घर-परिवार ? दरअसल हम लड़कियों को रोटी भी कमानी होती है और अपनी इज्ज़त भी बचानी होती है अन्यथा परिवार के लोग ही कह देंगे कि- नौकरी करने की कोई जरुरत नहीं घर में ही बैठी रहो ? यह कह देना सचमुच बहुत आसान है पर एक पढ़ी-लिखी लड़की का घर की दहलीज़ के अंदर कैद हो जाना बहुत ही मुश्किल। लेकिन मां- बाप और घर-परिवार वाले भी क्या करें ? उनके पास दिन- ब- दिन बढ़ते भ्रष्टाचार और सामाजिक विषमताओं ने बहुत ही सीमित दायरे छोड़े हैं।
दिल्ली की बसों में भीड़ एक समस्या है लेकिन आये दिन कोई ना कोई इस भीड़ का फायदा उठाकर किसी लड़की की कमर या छाती पर हाथ फेर ही देता है। ऐसी स्थिति में लड़कियां अपने आपको असहज महसूस करती हैं। पर करें भी तो क्या करें सामने वाला बंदा अपने इस कृत्य के लिए बाकायदा सॉरी भी बोलता है लेकिन मौका मिलते ही दुबारा कमर या पेट पर कोहनी धंसा देता है। ज्यादातर लड़कियां इस तरह कि घटनाओं को नज़रअंदाज करने की कोशिश करती हैं। परन्तु कुछ लड़कियां इस घटनाओं को एन्जॉय करती और हंसकर टाल भी जाती हैं। विस्मय तो तब होता है जब कोई 40 -45 साल का युवक 14-15 साल की लड़की को छेड़ रहा होता है और बात- बात में उसकी जांघ पर हाथ रखने से नहीं चुकता। पर ऐसी घटनाओं के प्रति लड़कियों को गंभीर हो जाना चाहिए और कठोर लहजे में सख्त आवाज के साथ अपना विरोध दर्शना चाहिए।
पिछले दिनों सलोनी के साथ भी तो आखिरकार यही तो हुआ। बेचारी का सीधापन कितनी बड़ी मुश्किल खड़ी कर दिया था। आखिर उसने एक मुस्कराहट का जबाब एक मुस्कराहट से हे तो दिया। तीन लड़के करीब एक महीने तक उस लड़की का पीछा करते-करते उसके घर और ऑफिस तक पहुंचते रहे थे। नौबत यहां तक आ गई कि वह चाक- चौराहे और बाज़ार जहां भी होती वही तीन गिने चुके चहरे नजर आ जाते। अंतत जब वह इस हालत से तंग आ गई तो पुलिस को फ़ोन करना पड़ा और तब कहीं जाकर इस मुश्किल से निजात मिल पाई। लेकिन महिने भर भी नहीं बीते थे कि प्रतिशोधवश उन्हीं मनचलों ने दुबारा उसे परेशान करना शुरू कर दिया। फिर इस बात को वह अपने घर पर भी नहीं बता पाई। लेकिन स्तिथि जब उसके मानसिक प्रताड़ना के रूप में असहनीय होने लगी तो एक अपने ही हमउम्र पुरुष मित्र के साथ पुलिस थाने पहुंच गई। उन मनचलों के छेड़छाड़ ने उसे सिर्फ मानसिक प्रताड़ना का शिकार बनाया था पर पुलिस के सवालों ने महिला सुरक्षा कानून का बलात्कार कर दिया। कितने दिन छेड़ रहे हैं ? क्यों छेड़ रहें हैं ? तुम्हारे पहले से कोई आपसी सम्बन्ध तो नहीं हैं ? सिर्फ तुम्हें ही क्यों छेड़ते हैं ? तुमने इतने छोटे कपडे क्यों पहनी हो ? तुम अपने मां-बाप के साथ क्यों नहीं आई ? तुम्हारे साथ यह पुरुष मित्र कौन है ? और ना जाने क्या- क्या ?
मैं इन्हीं सभी ख्यालों में उलझी हुई थी तभी मेरी नजर उस सीट पर पड़ी तो वह अधेड़ व्यक्ति और उसके बगल वाली सीट पर बैठी महिला गायब थे। बीच में तो कोई बस स्टैंड भी नहीं आया ? लग रहा है वह व्यक्ति भी निर्माण विहार के उसी स्टैंड पर उतर गया जहां वह लड़की उतारी थी। क्या ? कहीं वह उस लड़की का दुबारा पीछा तो नहीं करेगा ? मेरे अंदर एक सवाल कौंधा परन्तु तब तक बस प्रीत विहार बस स्टैंड के करीब पहुंच चुकी थी। मैं बस से उतरने से पहले अपने सामान को सहेजती नजर पास में पड़े लेडीज़ बैग पर पड़ी। मैंने अगल बगल नजर दौड़ाया आसपास दो-चार पुरुष यात्रियों के आलावा कोई और नजर नहीं आया तो मुझे यह समझने में तनिक भी देर नहीं लगी की यह पर्श उस पीड़ित लड़की का ही है जो असहजता की स्थिति में भूलवश छोड़कर चली गई होगी। मैंने उस लावारिस बैग को उठा लिया पहले जी चाहा कि कंडक्टर को दे दे ताकि वह वापस ढूंढने आये तो वह लौटा दे। परन्तु फिर ख्याल आया नहीं - आजकल दूसरे का सामान भला कौन सहेजकर रखता और लौटाता है। और कहीं कोई जरुरी डाक्यूमेंट्स हुआ तो …?
बस से उतरने के बाद पीजी पहुंची तो घडी की छोटी सुई सात और बड़ी बारह पर थी। कनॉट प्लेस से प्रीत विहार पहुँचाने में करीब करीब एक घंटे का समय तो लग ही जाता है। दिन भर ऑफिस की थकान के बाद यह आधे घंटे की कमरतोड़ बस की यात्रा पूरे शरीर को चूस लेती है। और इस बार तो पीरियड भी पता नहीं क्यों पांच दिन पहले आ गया। इस ईश्वर ने भी जाने क्यों सारे दर्द हम लड़कियों के हिस्से में लिख रखे हैं ? वाशरूम पहुंचकर मैंने चेहरे पर ठंडे पानी के छींटे मारे और वापस आकर उस बैग को टटोला ताकि ऐसा कुछ मिल जाये जिसके आधार पर उसे वापस लौटाया जा सके। कोई डायरी, नोट बुक, विजिटिंग कार्ड कुछ भी जिसमें अमुक लड़की का नाम या फिर पता लिखा हो। पर बैग में एक पैकट सैनिटरी नैपकिन, एक लंचबॉक्स और पानी की बोतल के आलावा कुछ दिखाई नहीं दिया। लेकिन साईड पॉकेट में हाथ डाला तो एक छोटी डायरी मिल गई। डायरी में कोई पता तो नहीं पर कुछ टेलीफोन नंबर जरूर थे। एक नंबर पर जिसके ऊपर पापा लिखा था मैंने अपने फोन से डॉयल किया तो दूसरी तरह से जो आवाज़ आई वह एक महिला की थी। मैंने बिना कोई भूमिका बनाए बैग के बस में मिलाने की बात बताई तो उसने धन्यवाद ज्ञापन के भाव के साथ बिना पूछे ही यह बता दिया हां, यह मेरी बेटी का बैग है जो 73 नंबर की डीटीसी बस में छूट गया था। मैंने फ़ोन पर ही उस महिला के घर का पता लिया और अगले दिन पहुंचाने का आश्वासन दिया तो उसे यह कहते देर नहीं लगी कि कोई बात नहीं बेटी आप अपना पता दे दो आकर मैं ही ले लूंगी। पर मैंने कोई बात नहीं कहते हुए फ़ोन काट दिया।
दूसरे दिन घर से करीब पांच बजे के आसपास घर से निकल गई। उस लड़की का घर मुख्य सड़क से दस मिनट की दूरी पर एक बिल्डिंग के तीसरी मंजिल पर था। मैंने थोड़ी सी पूछताछ की और तीसरे मंजिल पर पहुंची। अपने आपको थोड़ा आस्वश्त किया और डोरवेल बजाकर दरवाजा खुलने का इन्तजार करने लगी। थोड़ी देर बाद दरवाजा खुला तो आवाक रह गई- यह तो वही अधेड़ आदमी था जिसे उस दिन लोगों ने बस में पीटा था। और उसके बगल में खड़ी महिला भी वही थी जो उस दिन इस अधेड़ के बगल वाली सीट पर बैठी थी। किसी अनहोनी के डर से मेरे हाथ- पैर थर- थर कांपने लगे, मुझे पल भर के लिए ऐसे लगा कि मैं किसी बहुत बड़ी साजिश की शिकार हो चुकी हूं। परन्तु ऐसे में अपना धैर्य खो देना किसी मूर्खता से कम नहीं था। मैंने अपनी आवाज़ को थोड़ा कसा तथा कठोरता और संदेह भरे लहज़े में उन दोनों की तरफ नजरे तरेरते हुए उन प्रश्न किया ? उन दोनों ने बिना किसी गहरे भाव के अंदर आने को कहा और एक लड़की की तरफ इशारा करते हुए कहा नहीं, मेरा नहीं, मेरी बेटी का है। इसका नाम अनन्या है और यह सेकण्डरी की स्टूडेंट है।
मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था ! मेरे पैर के नीचे की जमीन अब खिसके की तब खिसके। मेरे घर के अंदर की तरफ बढ़ते हुए कदम अचानक दहलीज़ के बाहर ही अटक गए- क्योंकि यह लड़की भी वही लड़की थी जिसने अधेड़ को थप्पड़ जड़ा था। उस वक़्त मेरे पास एक मां- एक बेटी और एक बाप के तीन चेहरे थे। मेरे मन में उस लड़की, उस महिला, और उस पुरुष के लिए एक जोरदार समुंद्री लहर की तरह कुछ घिनौने ख्याल आए। रिश्तों के मर्म का बिना कोई परवाह किए मैं उल्टे पैर भागी। पर इन घिनौने रिश्तों से कब तक भागा जा सकता है ? इस घटना को करीब दो साल हो गए- परन्तु ऐसा लगता है कि तब से लेकर अब तक मैं एक अंतहीन रास्ते पर भागे जा रही हूं - और एक मर्दाना आवाज़ ''उस दिन जो कुछ हुआ वह महज़ एक कमजोर लम्हा था'' आज भी मेरा पीछा कर रही है। उफ्फ ! यह लम्हें भी इतने कमजोर क्यों होते हैं ? जो एक स्त्री की ढकी अथवा खुली देह में छाती, कमर और योनि तो देखते हैं पर अपनी ही बहन- बेटियों का चेहरा नहीं तलाश पाते।

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दहलीज़- कहानी- संजय शेफर्ड)

कविताएं उस संक्रमण से उपजी मालूम होती हैं, जिनसे कविता का उर्वरक पैदा होता है- ओम निश्चल

ओम निश्चल उन चंद लोगों में से हैं जो अपनी स्पष्टता और बेवाक राय के लिए लिए जाने जाते हैं। उन्होंने संजय शेफर्ड के दोनों ही संग्रहों 'पत्थरों की मुस्कराहट ' और 'अस्वीकृतियों के बाद' की बहुत ही सारगर्भित, सकारात्मक और निष्पक्ष तरीके से विवेचना की है। उनकी विवेचना मुझे हमेशा से इसीलिए लुभाती रही है कि वह बिना किसी पूर्वभावना के सच लिखते हैं। और शायद यही सच हम नए रचनाकर्मियों के लिए खाद पानी है, जो एक बीज को वृक्ष बनाता है। सृजन कर्म से जुड़े दोस्तों को उनकी बातों को पढ़ना- आत्मसाद करना बहुत ही लाभप्रद हो सकता है, इसलिए मित्र जरूर पढ़ें। 

कविता पर ओम निश्चल का वक्तव्य

एक उम्र होती है कविता में प्रवेश की। एक उम्र होती है प्रेम की। एक उम्र होती है जीवन को कवितामय बना लेने की और उस संसार में गार्हस्य्प्र भाव से रमने की। संजय युवा हैं, स्वाभाविक है कि जैसे औरों को वैसे ही राग अनुराग ने उन्हें करीब से छुआ है और इस छुवन ने उन्हें कवि बना कर रख दिया है। जीवन तो रागानुबद्ध हो चुका है पर उसका कवितामय होना अभी शेष है। एक साथ दो दो संग्रहों के साथ उनका कविता की दुनिया में आना यही सिद्ध करता है।

जैसा कि यह उम्र बताती है कि उसे क्या चाहिए। हमारी भूख बताती है कि कितनी रोटियों की हमें जरूरत है। संजय अपनी जरूरत समझते हैं। अपने भीतर के कवि की जरूरत समझते हैं। वे जीवन से अभिभूत होते हैं तो बिना कहें बिना गाए नहीं रहते। जैसे कभी गिरिजाकुमार माथुर ने गाया: मेरे युवा आम में नया बौर आया है। खुशबू बहुत है क्योंकि तुमने लगाया है। उनका वश चले तो वे दसों दिशाओं में अपनी कविता का परचम लहरा दें, कविता से अपनी आसक्ति का बखान अजाना न रहने दें। एक गीत का स्थायी याद आता है: तुम्हारे लिए मैं कोई गीत बुन दूँ हमारे लिए कोई सपना बुनो तुम। ये कविताएं इसी पारस्पिरिकता और परस्परावलंबन की कविताएं हैं। ''तुम मेरी आंखों में अपने आंसू लिख दो। मै दर्द लिख दूँगा अपना तुम्हारी छाती पे। '' यह एक साथ जीने एक साथ सपने देखने एक साथ मरने के संकल्प की कविताएं हैं। ये कविताएं बताती हैं कि प्रेम जीवन का महोत्सव है। जैसे कृष्णा सोबती कहती हैं सेक्सद जीवन का महाभाव है। ये कविताएं इस महाभाव का रचनात्मक अनुष्ठान हैं। यहां देह, मन, आत्मा के सारे उद्यम उस प्रेम को पाने जीने और न खोने देने के लिए प्रतिश्रुत दिखते हैं जिसके लिए कवि पहले ही कह गया है: प्यार अगर थामता न पथ पर उंगली इस बीमार उमर की। हर पीड़ा वेश्या बन जाती, हर आंसू आवारा होता।

ऐसा नहीं कि संजय की ये कविताएं पहली बार प्रेम की अनुभूतियों से रूबरू हुई हैं। लगभग सभी कवि प्रेम की पहली पायदान से ही कविता के दुर्गम दुर्ग में प्रवेश करते हैं। यह लगभग हर कवि के काव्याभ्‍यास की पहली सीढ़ी है। इसी सीढ़ी से होकर वह जीवन के लालित्य को जीता हुआ समय और समाज की दुश्वा रियों तक पहुंचता है। यहॉं दैहिकता उतनी ही प्रबल है जितनी कभी और अभी भी अशोक वाजपेयी के यहां प्रबल है। मुझे इस अर्थ में वे धर्मवीर भारती के इस तर्क के अनुगामी प्रतीत होते हैं कि न हो यह वासना तो जिंदगी की माप कैसे हो। यह कवि भी इसी तर्क के वशीभूत होकर इस संकरी गली में उतरा है जहां दो के अलावा तीसरे की समाई नहीं है। यह उसकी द्वैत से अद्वैत की यात्रा है। उसके लिए देह मंदिर है। पूजाघर है। पर देह से देह तक का यह बखान कवि के भीतर पलते सुकोमल प्रेम का परिचायक तो है पर इस अद्वैत को जीने के बावजूद कविता का श्रृंगार अधूरा रह गया है। कविता वह जो किसी अलभ्य बिम्ब के आलोक में स्‍मरणीय हो उठे, ऐसा अवसर संजय कम आने देते हैं। एक अर्थ में ये कविताएं सजल हृदय के भावोदगार तो हैं पर आवेगों की वल्गाएं न थमने पर जो निष्कृति कवि की होती है, वैसा आभास यहां बहुधा होता है। पर ऐसे भी क्षणों को यहां कवि ने लक्ष्‍य किया है जब वह प्रेमिका के माथे पर नदी के-से ठहराव को देख उम्र के ठहराव की बात सोच बैठता है ।

संजय के दोनों कविता संग्रहों का कथ्य लगभग एक-सा है। प्रेम, संबंध, उदासियां, टूटन और जीवन की गोधूलि । लगभग एकालाप में विन्‍यस्‍त हैं सारी कविताएं । कवि देह की नग्नता की नुमाइश करते बाजार की आलोचना भी करता है और सांप्रदायिक दंगे व प्रजातांत्रिक त्रासदियों पर भी उंगली उठाता है। पर अंतत: वह खुद भी समग्रत: प्रेम और देह का ही अनुगायक लगता है। प्यार से लबालब भरे होने के बावजूद वह इसे एक जूगनू की तरह क्षणभंगुर सा मानता है। होने का अहसास देकर गुम हो जाने वाला। संजय की ये कविताएं कुल मिलाकर एक युवा चाहत का इज़हार लगती हैं। इनमें कितनी कविता है कितना हृदयोदगार---कहना मुश्किल नहीं है। कविता जिस तरह परंपरा और अनुभव की आंवें में पक कर अनुभूतियों के कच्चे- माल को संवेदना की सघन चासनी में बदलती है, वैसी कविताएं यहां बेहद कम हैं। बल्कि‍ लगता है कि हम एक ही कविता का पारायण यहां कर रहे हैं। यहां तक कि इन कविताओं में संजय की निजता अक्सर तिरोहित नजर आती है, वह निजता जो एक मुहावरे के धक्के के साथ सामने आती है जिसे जगूड़ी कहते हैं, ''हिल गए तो पिल गए'' वाली सक्रिय मुहावरेदारी यहां नजर नहीं आती।

कविता सुगम संगीत नही है न सुगम संगीत को कविता मानने की कोशिश करनी चाहिए। इन कविताओं को मैं आज की युवा कविता के बीच कहां रखना चाहूँगा, यह असमंजस मेरे सामने है। क्योंकि कविता आज वहां पहुंच गयी है जहां उसने अभिव्यक्तिेयों के नए सांचे आविष्कृत किए हैं। हमारे पुरोधा कवि मुक्तिबोध ने यों ही नहीं कहा कि तोड़ने होंगे मठ और गढ सब। अभिव्य‍क्तिै के खतरे उठाने ही होंगे। संजय की इन कविताओं से अभी नहीं लगता कि अभी उसने अभिव्यजक्ति के खतरे उठाए हैं। कभी एक निरासक्त प्रकृति प्रेमी ने लिखा था: बाले तेरे बालजाल में कैसे उलझा दूँ लोचन। जब कि उसकी उम्र बाले के बालजाल में उलझने की ही थी।  निराला ने ''पंत और पल्लव'' में कवि की यह कह कर आलोचना की थी कि यह कविता प्रकृतसम्मत नहीं है। चाहिए तो यह कि वह इस उम्र में बाले के बालजाल से बिंधे। संजय की उम्र तो अभी निश्चंय ही बालजाल में बिंधने की है पर इस वेध्यता में जिस तरह की संवेदना पल्लवित और पुष्पित होनी चाहिए, भाषा के जिस आधुनिक स्‍वरूप का उद्घाटन होना चाहिए, उसका अभाव दृष्टिगत होता है। प्रेम जैसा भी हो, वैभव भरा या अकिंचन-उसकी अभिव्‍यक्‍ति हमारे समय की आधुनिक भाषा-संवेदना में होनी चाहिए। तभी वह ध्‍यातव्‍य होगी। हमारी कवि परंपरा में व्‍याप्‍त प्रेम और श्रृंगार की कविताएं इसका प्रमाण हैं।

मेरे प्रिय आलोचक प्रभाकर श्रोत्रिय का कहना है कि किसी भी युवा कवि की पहली कृति को फूल की तरह उठाना चाहिए। सो पहली नजर में ये कविताएं मुझे एक युवा कवि की बेकरारी का उदाहरण मालूम होती हैं। ये कविताएं उस संक्रमण से उपजी मालूम होती है, जिनसे कविता का उर्वरक पैदा होता है। इतना तो सच है कि यह कवि जीवन का हामी है। यहां केंद्र में प्रेम है, पर है अभी वह बाहों, सांसों, धड़कनों, छातियों, होठों, नाभि और योनि तक सिमटा हुआ प्रेम ही। यहां उस अनिंद्य प्रेम का स्पर्श कवि कम कर सका है जिससे गुजर कर ही, कविता ही नहीं, जीवन में भी उदात्तता आती है।जिसे कुंवर नारायण जी 'हाशिये का गवाह' में आत्‍मा की उजास कहते हैं: ''माना गया कि आत्‍मा का वैभव वह जीवन है जो कभी नहीं मरता/ प्‍यार ने शरीर में छिपी इसी आत्‍मा के उजास को जीना चाहा।'' उस उजास की झलक यहां नहीं मिलती। मुझे यकीन है कविता की इस ज़मीन को बरकने के लिए थोड़ा समय मिले तो संजय कविता में ऐसा फूल खिला सकते हैं जब कविता की उसकी क्यारी महकती हुई दिखाई दे।

।। निष्‍कर्ष ।। प्रेम करना और प्रेम कविता लिखना दोनों दो अलग अलग बातें हैं। हो सकता है आप प्रेम में सफल हों पर कविता में नहीं। हो सकता है कविताएं सिद्ध हों पर प्रेम नहीं। कुछ ऐसे भी होंगे जिनकी न कविता सिद्ध होती है न प्रेम। संजय प्रेम का रसायन समझते हैं पर कविता में उसे इस रूप में नहीं उतार पाते कि लगे कि यह कवि एक समृद्ध कवि-परंपरा का अग्रधावक कवि है। अनेक युवा कवियों के साथ ऐसा ही दिखता है। इसलिए यहां प्रेमिका के होठों का पराग तो है पर गलियों, कस्‍बों, नगरों की वह धूल धक्‍कड़ नहीं जिसमें सन कर कविता मिट्टी की महिमा को जान पाती है।

मोनालिसा की आँखों में उतरने की कोशिश - संजय शेफर्ड

कल रात्रि एक बहुत ही सजीव स्वप्न देखा। स्वप्न के दो छोर थे। एक तरफ शब्द था, दूसरी तरफ भी शब्द ही था। दूर कहीं रेगिस्तान के बीचोबीच दौड़ती, हांफती, पानी की बूंद दर बूंद के लिए तड़पती जिंदगी थी। एक औरत हताश, परेशान, पसीने से भीगी हुई आती है। आंसुओं की कुछ बूंदे विस्तृत रेतीले रेगिस्तान पर टपकाते हुए महसूस करती है कि उसके आंसुओं से रेगिस्तान की प्यास नहीं बुझने वाली। हताश नहीं होती है। हार नहीं मानती बस थोड़ा सा संयम बरतती है। और अपने आंचल को निचोड़ने लगती है। और तब तक निचोड़ती है जब तक कि आंचल का एक कोना फट नहीं जाता। आंचल के इस फटे हुए कोने में ममत्व है, प्यार है, मान और मनुहार है, अपनापन है, कहीं कहीं शांत प्रतिशोध भी पर अवसाद कहीं भी नहीं।
जिंदगी को बचाने कि यही कवायद सुमन केशरी के कविता संग्रह "मोनालिसा की आँखे " में दिखता है। किताब से बाहर झांकता हूं। अपनी आंखों पर पानी की छींटे मारता हूं तब जाकर मुझे पता चलता है कि - मैं कोई स्वप्न नहीं किताब को पढ़ते हुए एक सच देख और जी रहा था। पर स्वप्न इसलिए क्योंकि मोनालिसा की आंखों का सृजन साहित्य की धरा पर एक सपने के पुरे होने जैसा है। इतने सधे हुए शब्द, सटीक सारगर्भित लेखन और खोई हुई चीजों को उददेलित करता एक आनोखा पुनर्जागरण। सपने को सच होते देखना सचमुच कितना लाजवाब होता है न ? अभी संग्रह को पढ़ रहा हूं पर सच कहूं तो पूरे संग्रह में मुझे जिंदगी की तपती धूप में खड़ी, टुकड़ों -टुकड़ों में नरम छांव तलाशती एक स्त्री नजर आती है ... एक स्त्री जो अनेक परिभाषाओं के बाद भी अभी तक अपरिभाषित है। शायद मोनालिसा की आँखें .. भी उसी तलाश की एक मजबूत और बेहद शसक्त कड़ी है।
संग्रह का नाम, मोनालिसा की आंखें पहली दृष्टी में देखने पर एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा कर देता है। मोनालिसा पर लिखी गईं इस संग्रह में कुल चार कविताएं हैं। ...और मोनालिसा की आंखों पर तो बस एक .. फिर भला मोनालिसा की आँखे क्यों - ? संग्रह का नाम कुछ और क्यों नहीं रखा गया। इस संग्रह में ज्यादातर गोत्र की कविताए हैं। स्त्री मन की चीख -पुकार दर्द- व्यथा, मान -मनुहार, अपनापन, जीत और हार की कविताएं हैं। मां - बेटी के लाड - प्यार की कविताएं हैं। सपने हैं और उन सपनों के टूटने की दर्द जिरह और दुबारा जिंदगी में वापस आ पाने की तड़प भी है। और इससे थोड़ा और आगे बढ़ने का साहस करें तो जीवन के विविध पहलुओं की एक विस्तृत विविधिता। फिर इस संग्रह का नाम आखिर मोनालिसा की आंखें क्यों ?

पहली दृष्टी का यह सतही अवरोध वस्तुत: हर पाठक के मन में उठ सकता है। परन्तु संग्रह की पहली ही कविता उसके मन में उतरना प्रथम दृष्टी में उत्पन्न उस अवरोध को जार -जार कर देती है। जीवन की सतह पर दर्द ही दर्द बिखरा दिखाई देता है। मन में भी अथाह दर्द है। पर उस दर्द के बीच जो जीत की एक हल्की सी रेख है, जीवन के खारेपन में रीझती मुस्कान है। उसके लिए मन की सीलन भरी अंधेरी सूरंग में उतरना पड़ता है, तब जाकर एक वास्तविक बिंब बनता है। कविता संग्रह मोनालिसा की आंखें में भी यही बात जाहिर होती है। पहली सतही दृष्टी से थोड़े और गहराई में उतरने पर अचानक वह सवाल छूमंतर हो जाता है। पाठक दुबारा पुस्तक के कवर पेज को देखता है। बार -बार देखने पर मजबूर होता है। और अपने मन के अन्दर ही अन्दर विचारता है कि इस पुस्तक का (मोनालिसा की आंखें) भला इससे अच्छा नाम क्या हो सकता है ?
संग्रह की गहराईयों में उतरते हुए मैं भी यही पाता हूं कि जिस तरह मोनालिसा की आंखों में छुपे भाव, दर्द और जिरह को समझते हुए भी समझना आसन नहीं है, उसी तरह इस पुस्तक को भी सतही दृष्टी के आधार पर समझते हुए भी समझ पाना मुश्किल है। मोनालिसा की आंखों में बहुत कुछ स्पष्ट है ...और बहुत कुछ स्पष्ट होते हुए भी अपरिभाषित। सुमन केशरी की भी यही सबसे खास बात है। वह बहुत कुछ बिना कहे हुए भी कह जाती हैं। सुमन केशरी पाठको को एक ऐसा सकारात्मक मौका देती हैं ... जहां पर आप अपनी दृष्टी के आधार पर अपनी -अपनी परिभाषाएं गढ़ सकते हैं। सचमुच इस पुस्तक का इससे अच्छा और सशक्त पछ (नाम ) मोनालिसा की आंखें के आलावा कुछ हो ही नहीं सकता था। मोनालिसा की आंखें बिलकुल उपयुक्त नाम है।
उपयुक्त होने के कारणों में सबसे बड़ा कारण है। दृष्टी। मोनालिसा की आंखें जो तलाशना चाहती हैं। सुमने केशरी के मन की आंखों में भी वही तलाशती प्रतिविम्वित होती है। ... और पूरा का पूरा संग्रह एक तलाश ही तो है। ना नाने कितनी सहज संवेदनाओ, ना जाने कितनी मर्मचित्रों चित्रों से गुजरती यह तलाश, शब्दों के माध्यम से जीवन से सबंधों का विंध बांधती नजर आती है। औरों के लिए तप/ मोनालिसा की आंखे / माँ तुम एक छाया सी / सुनो बिटिया / जब से देखा है तुम्हें उकेरते चित्रों में / पूर्वजो को याद करते हुए / मछली / सपने / धमाके के बाद / चिडियां / बचाना / मणिकर्णिका / सम्बन्ध / और औरत। संग्रह की ऐसी ही कुछ कविताएं हैं।
शीर्षक औरों के लिए तप कविता में सुमन केशरी कहती हैं - औरों के लिए तप करने को पैदा हुई / जीव को औरत कहते हैं / कहती थी मां / चूल्हे के सामने से घुटनों को पकड़ / उठती कराहती मां / उसके हाथों की बनी रोटी / अक्सरहा कुछ नमकीन लगती थी। यह एक छोटी सी कविता है। परन्तु इस छोटी सी कविता की पीठ पर बहते ना जाने, एक औरत के कितने अनकहे दर्द, अपनी अपनी परिभाषाएं लिख रहे हैं। औरों के लिए ताप और रोटी के नमकीन होने के दो विरोधाभाषी प्रतिमान इतने सहज रूप से वह सबकुछ कह जाते हैं। जो एक औरत सह -गह कर भी नहीं कह पाती है।
शीर्षक मोनालिसा की आंखें कविता में सुमन केशरी की अभिव्यक्तियों का फलक इतना सहज, सरल, सजीव और विस्तृत फलक लिए हुए है कि उसमें झांकते हुए एक बार जिंदगी खो सी जाती है। कुछ पंक्तियां - आज देख रही हूं / मोनालिसा ... / जब वहां थी तो जाने कहां थी / ठंड में / चिडचिड़ाहट में / पांवों की सुजन में / अगली सुबह की तैयारियों में / न जाने कहां थी, जब मैं वहां थी। अंतिम पैरा में सुमन केशरी कहती हैं - आखिर उसी का अंश ही तो हूं मैं भी। सचमुच सुमन केशरी भी उसी जिजीविषा की एक मात्र अंश सरीखी अवसाद और प्रतिशोध के बावजूद शांत मन से अपनी संवेदनाओं को जाहिर करती हुई बिना किसी ताम झाम और नाटकीयता के आगे बढती जाती हैं। एक स्त्री का एक जगह पर होकर भी नहीं होना। महज एक सवाल नहीं, दर्द है, जिरह है, और खुद के अस्तित्व पर मडराते खतरे बानगी भी।
शीर्षक माँ तुम एक छाया सी कविता में माँ के लाड़ -प्यार और बिछड़ने के दर्द को जाहिर करती सुमन केशरी कहती है - मां / ऐसा क्यों होता है / मैं जब जब याद करती हूं तुम्हें / पहुंच जाती हूं / सन 6 2 की उस दोपहरी में / जिसे तुमने भारी चादर डाल बदल दिया था झुरमुट में / तुम सजीव छाया सी छुंकी / सर और कानों की लौ सहलाती / कुछ गुनगुना रही थी / अस्फुट स्वर में। यह मर्मचित्र सिर्फ सुमन ही उभार सकती हैं। ऐसा सजीव चित्रण इस संग्रह के आलावा अन्यत्र कहीं बमुश्किल ही मिल पाएगा। अंतिम पैरा में आगे कहती हैं कि - मुझे मेरे ही खेल की दुनिया में मगन कर आहिस्ता से चली गई तुम ... / आज भी जब मैं ढूंढ़ती हूं तुम्हें / तुम एक छाया सी दिखती हो / होने न होने के बीच कहीं। सचमुच मां के होने और नहीं होने के बीच में मां के ममत्व को ढूंढ़ पाना ... मोनालिसा की आंखों की मृग मरीचिका ही तो है।
शीर्षक सुनो बिटिया कविता में एक मां अपनी नन्ही बिटिया को सपने दिखलाती, अपनी रहो में उसकी राहों के कुछ चिन्ह दिखाने की सहज चेष्ठा करती हुई। जीवन के ना जाने कितने सपने दे जाती है। पर शब्दों का बहाव इतना सहज है की वास्तविकता के सारे उपमानो का स्पर्श पाकर पाठक के मन पर एक बहुत ही बड़ा बिम्ब बनाता हुआ अचानक उस सतरंगी चिड़िया की तरह जो अभी -अभी पिंजड़े से आजाद हुई है। कुछ पंक्तियां - सुनो बिटिया / मैं उड़ाती हूं / खिड़की के पार / चिड़िया बन तुम आना। खिड़की के इस पार और उस पार की दुनियां में कितना बड़ा अंतर है यह इन पंक्तियों से अनायास ही जाहिर हो जाता है। खिडकियों से बाहर छांकने की यह जिरह हर स्त्री की आंख में होती है ... यही कारण है की आज की हर दबी, कुचली, अवहेलित स्त्री में मुझे मोनालिसा ही नजर आती है। शीर्षक जब से देखा है तुम्हें उकेरते चित्रों को कविता को पढ़ते हुए शब्द अनायास ही गले के नीचे उतरते जाते हैं। और एक बार मन कविता से हट कर संग्रह पर केन्द्रित हो जाता है। संग्रह सिर्फ अर्थ की दृष्टी से नहीं भाव और शब्द की दृष्टी से भी बहुत ही उंचा स्थान रखता है। कुछ शब्द ऐसे हैं कविताओं में जिनका होना संग्रह को कालजयी होने का मार्ग दिखता है। जब से देखा है तुम्हें उकेरते चित्रों को कविता - जब से देखा है / तुम्हें उकेरते चित्रों को / भावमग्न / एक-एक रेखाओं पर / तुम्हारे कोमल स्पर्शों की छुवन / मेरे भीतर की रूह / छटपटाती है / इन रेखाओं में समा जाने को / खिल जाने को तुम्हारे भीतर / कमलवत / आखिर शिला देख कर ही तो रोया था कविमन अहिल्या के लिए ...
पूर्वजो को याद करते हुए कविता पढ़ते हुए मुझे बरबस अशोक वाजपेयी की याद आ गई। संग्रह के लोकार्पण के मौके पर उन्होंने कहा था की इस संग्रह में ज्यादातर कविताएं हमारे गोत्र की कविताएं है। हां, संग्रह में सचमुच कई कविताएं हमारे गोत्र की हैं। पर इनका फलक इतना विस्तृत है की यह व्यक्ति विशेष ही नहीं बल्कि देश दुनिया का प्रतिनिधित्व करती हैं। कुछ पंक्तियां - मैं जल की वह बूंद हूं / जो आँख से बही थी / और नाव से उछल / लहरों के हिंडोले में सवार / फट पड़े बादल की बारिश का हिस्सा बन / धरती में समाई थी। कविता मछली की अभिव्यक्तियां और अनुभूतियां इतनी सरस, सहज और कोमल है कि बस बढ़ते ही मन में उतर जाती है, ना तो इसे दुबारा पढने की जरुरत पड़ती है, ना ही दुबारा समझने की। इसलिए इस कविता को ही मैं रख देता हूं ताकि आप आपने आधार पर कविता को लिख पढ़ कर इसकी विवेचना कर सकें - वह रेत में दबी मछली थी / जो मुझे मिल गई / निर्जन बियाबान मरुस्थल में / पानी / तलाशते तलाशते ... / पानी बीएस उसकी आंखो में था / मुझे देख वह डबडबाई / और / मैंने अंजुरी भर पी लिया उस खरे जल को ...
सपने हमारे आंखों के परदे पर एक नया वृत्त तैयार करते हैं। और इस वृत्त को देखते देखते खो जाना हर किसी को अच्छा लगता है। फिर चाहे आसमान की ऊंचाई हो, सागर की गहराइ हो, या फिर चलते चलते अचानक ही खो जाने की जिरह। सबकुछ सहज लगते हुए भी कितना अनोखा होता है। हम सपनों के मध्य परस्पर आगे बढ़ते हैं और अचानक सीढियां गायब हो जाती हैं। ... और जीवन तमाम रहस्यों के मध्य कैद होकर रह जाता है। पर सपनों को देखने और जीने की चाहते इन्सान कहाँ छोड़ पाता है। हर रात और हर उस रात के कुछ रहस्यमय स्वप्न। एक एक करके जीवन की पगडंडियों पर जीवन प्रयत्न चलते रहते हैं। धमाके के बाद कविता बहुत ही मार्मिक है। इसकी मार्मिकता हिरदय को कुरेदकर भावों को जागृत करती जान पड़ती है। धमाके का इतना भिभत्स रूप इतने सहज रूप से इतना जोरदार प्रहार करेगा सोचना भी गवांर लगता है। पर सुमन केसरी की कलम कभी भी अपना संयम नहीं खोटी है, प्रतिशोध है, अवसाद है, गहरा प्रहार है पर किसी तरह की चीख पुकार नहीं है। कविता की चार पंक्तियां - कांपता है शिशु / धमाके से गर्भ में / सुख गई नाभिनाल से जूझता / खोजता है द्वार निकास का। चिड़िया कविता के भाव प्रकृति के प्रति प्रेम की वह अद्भुत मिशाल है जो प्रकृति को बचाने, सजाने, सवारने और आने वाली पीढ़ी को कुछ दे पाने की जिजीविषा को जाहिर करता है।
इसके आलावा इस संग्रह की सभी कविताएं एक बार सोचने की विवशता को जाहिर करती हैं। इन कविताओं को पढने के बाद ऐसा लगता है कि कुछ ना कुछ अंश कविता से टूटकर हमारे अन्दर रह गया है। पूरा संग्रह पढ्नीय, भावपूर्ण और उत्कृष्ट है। फिर भी बचाना / मणिकर्णिका और औरत कविता अपना एक विशिष्ट स्थान रखती है। औरत कविता आपके लिए - रेगिस्तान की तपती रेख पर / अपनी चुनरी बिछा / उस पर लोटा भर पानी / और उसी पर रोटियां रखकर / हथेली से आंखो को छाया देते हुए / औरत ने / ऍन सूरज की नाक के नीचे एक घर बना लिया। आखिर यही तो शब्दों के प्रति सुमन केशरी की आत्मीयता जो हर एक चीज को एक नवल अर्थ देता है। 
मैं इस समीक्षा को शब्द से समाप्त कर सकता हूं पर समाप्ति संग्रह की एक कविता से समाप्त करना ज्यादा उपयुक्त लग रहा है। कविता का शीर्षक है मैं बचा लेना चाहती हूँ - मैं बचा लेना चाहती हूँ / जमीन का एक टुकड़ा / खालिस मिट्टी और / नीचे दबे धरोहरों के साथ / उसमें शायद बची रह जाएगी / बारिश की बूंदों की नमी / धूप की गरमाहट / कुछ चांदनी / उसमें शायद बची रह जाएगी / चिंटियों की बांबी / चिड़िया की चोंच से गिरा कोई दाना / बाँस का एक झुड़मुट / जिससे बांसुरी की आवाज गूंजती होगी... यह संग्रह अपनी भाषा, अपने शिल्प, अपने सहज भाव, उन्मुक्त विचार और काब्य कौशल की उत्कृष्टता के लिए जाना जाएगा।

जीवन का अनुभव साहित्य अध्ययन का विकल्प नहीं: पुरुषोत्तम अग्रवाल

इंडिया इंटरनेशनल सेंटर दिल्ली में संजय शेफर्ड के युगल कविता संग्रहों 'पत्थरों की मुस्कराहट' और 'अस्वीकृतियों के बाद' के विमोचन के मौके पर परिचर्चा बेहद ही विविधतापूर्ण रही। मंच पर वर्तमान के जाने माने कवि व आलोचक अशोक कुमार पाण्डेय और हिन्दी साहित्य के प्रसांगिक समीक्षक ओम निश्चल की मौजूदगी और सार्थक  विवेचना बहुत ही सारगर्भित रही। देश के प्रख्यात साहित्यकार व वरिष्ठ आलोचक श्री पुरुषोत्तम अग्रवाल का इस मौके पर लेखन कर्म पर दिया गया वक्तव्य बहुत ही महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ ऐतिहासिक रहा। वर्तमान अतीत और भविष्य के सन्दर्भ में उनके वक्तव्य की महत्ता को देखते हुए दो भागों में तैयार किया गया है। 

कविता पर पुरुषोत्तम अग्रवाल का वक्तव्य 

( भाग- पहला )

सबसे पहले तो मैं अपनी दो-तीन चीजों पर प्रसन्नता जाहिर करना चाहता हूं कि हिंदी से जुड़े हुए बहुत कम कार्यक्रम ऐसे होते हैं जिसमें हिस्सा लेने वाली ऑडिन्स की औसत आयु 30 साल के आसपास मानी जा सकती है। एक बात जो मैंने बनारस के एक कार्यक्रम में कह दी थी, उस वक़्त मेरे साथ ओम निश्चल जी भी थे काफी गालियां खाई थी। लेकिन बात तो सत्य थी, इसलिए गालियां देने वाले देते रहें। मैंने यह कह दिया था कि हिंदी साहित्य धीरे धीरे वृद्धों का मनोविनोद बनता जा रहा है तो बनारस के बहुत से लोग मुझसे खफा हो गए लेकिन यह वास्तविकता है। इसलिए यहां मैं बहुत ही निजी प्रसन्नता जाहिर करना चाहता हूं कि संजय के कारण, संजय के उदार एम्प्लायर के कारण, संजय की फेसबुक पर इतनी मित्रताओं के कारण यहां इतने सारे लोग मौजूद हैं। इसके लिए मैं बेहद खुश हूं और कुछ उम्मीद बनती है, क्योकि यह नौजवान संजय की दोस्ती के कारण अगर संजय की कविता तक पहुंचेंगे तो उम्मीद करनी चाहिए कि अन्य कवियों तक पहुंचेंगे, अन्य तरह के लेखन तक भी पहुंचेंगे और हिंदी साहित्य और भाषा दोनों को जो मुझ जैसे व्यक्ति को कभी-कभी लगता है कि नौजवानों के बीच में उसकी प्रजेंस काम होती जा रही है वह फिर से शायद वापस मिलाने के आसार हों, तो एक तो मैं इस पर अपनी प्रसन्नता जाहिर करना चाहता हूं।

दूसरी बात यह कि ऐसे बहुत ही कम कार्यक्रम होते हैं जिसमें सचमुच उत्सव जैसा माहौल होता है, हिन्दी की दूसरी सबसे बड़ी समस्या यह है एक हिन्दी का अध्यापक होने के नाते जानता हूं। पच्चीस साल मैंने पढ़ाया है - कि बीए में दाखिला लेते ही मनुष्य को बोकराहट हो जाता है। दुनिया के सारे गम उसके चहरे पर झलकने लगते हैं, मुझे अपने क्लास में यह कहना पड़ता था, लगभग हर क्लास में कहता था कि मेरे क्लास में इतना दुखी होकर मत बैठा करों दुनियां में और भी दुख है लेकिन यह दुख कुछ समझ में नहीं आता। इसलिए भी बहुत प्रसन्नता है कि इतने अच्छे, इतनी हंसी-ख़ुशी के माहौल में हम लोग मिल रहे हैं।

तीसरी बात यह कि जो अशोक ने कहा कि 20 साल बाद संजय बड़े कवि होंगे, तब आयोजन होगा तो बुलाएंगे भी या नहीं, बड़े लोगो को बुलाएंगे, मैं यह बात यकीन के साथ कहना चाहता हूं और पूरी गंभीरता के साथ कि अशोक अपना सोशल एक्टिविज्म थोड़ा कम कर दें और फेसबुक पर दिए जाने वाले वक़्त को कुछ काम कर दें तो मैं यह बात पूरी गंभीरता और गर्व के साथ कह सकता हूं, मुझे इस बात का व्य्क्तिगततौर पर अहसास है कि मैं बीस साल बाद एक अत्यंत हिंदी के महत्वपूर्ण कवि के साथ मंच पर बैठा रहूंगा।

संजय के सन्दर्भ में एक और मत्वपूर्ण बात जो मैं कहना चाहता हूं कि इतनी सी उम्र में आप दो चार उद्योग भी चला रहे हो, चार-पांच देश भी घूम आए हो, ग्यारह सौ कविताएं भी लिख दी है, दो चार उपन्यास भी लिख गई दिए होंगे, अच्छा एक उपन्यास भी लिखा है। लेकिन इस बात की मैं तारीफ करूंगा की संजय ने यह बात बड़ी ही साफगोई से लिखी है। लेखन क्या है सही मायने में तरह से जान नहीं पाया हूं। पाठ्यक्रम की किताबों के आलावा मैंने कभी भी साहित्य नहीं पढ़ा। हां, लेकिन मैंने जीवन को पढ़ा है, सामाजिक परिस्तिथियों के देखा, समझा, झेला है। कला और संस्कृति को झेला है, भारत के कोने-से परिचित होने के बाद वर्तमान में कई देशों के भ्रमण से खुद में एक अलग तरह की सोच को विकसित होते देख रहा हूं। इसके बावजूद मैं उन लोगों में से हूं चाहे भले ही मेरी बात किसी को बुरी अथवा पुरानी जड़तापन का प्रतीक लगे, यह मानता हूं कि किसी भी भाषा के साहित्य में अपनी उपस्तिथि दर्ज करने के लिए उस साहित्यिक परम्परा से अवगत होना बेहद ही जरुरी है। तो उस परम्परा से वाक़िब हुए बिना, उस परम्परा में खुदको अवस्थित किये बिना मानीखेज साहित्य नहीं लिखा जा सकता है।

जैसा कि हर प्रेम अभूतपूर्व होता है, मैं ऐसा नहीं मानता की बाइस साल की उम्र में आदमी ने एक ही प्रेम किया हो। संजय के सन्दर्भ में मैं यह कहना चाहूंगा कि पूरी आशंका है कि यह पहला प्रेम नहीं है। परन्तु पहला हो या पांचवा क्या फर्क पड़ता है, प्रेम तो प्रेम है। हर व्यक्ति का प्रेम अभूतपूर्व अनुभव है, अद्वितीय अनुभव है, उस प्रेम की अभिव्यक्ति अभूतपूर्व हो यह जरुरी नहीं है। मेरा प्रेम मेरे लिए अभूतपूर्व है, आपके लिए मानीखेज तब है जब मेरी अभिव्यक्ति में आपको कुछ अभूतपूर्व होता दिखे। अगर मैं अपनी प्रेमिका से यह कहता हूं कि तुम ये हो, वह हो, दुनिया के करोडो प्रेमी मेरे से पहले कह चुके होंगे, मेरे बाद बाद भी कहेंगे। प्रेम का आरम्भ कई बार झूठ से होता है, हालांकि अधिकांशत झूठ से ही होता है। परन्तु मेरे लिए वह झूठ महत्वपूर्ण तब होगा जब ऐसा लगे कि ऐसा झूठ अभी तक इस भाषा में किसी ने नहीं बोला था।

एलियट ने लिखा है कि कोई व्यक्ति जो 25 साल के बाद कवि रहना चाहता है, हमारे गुरुदेव नामवर सिंह कहते हैं कि 15 की उम्र में जो आदमी कविता ना लिखी हो वह आदमी नहीं ठूठ है। हम सब लिखते भी आमतौर पर सभी लिखते हैं, और पहली कविता ज्यादातर पडोसी अथवा पड़ोसन के लिखी जाती है। एलियट ने यह कहा कि अगर आप 25 साल के बाद कवि रहना चाहते हैं तो यूरोप की सम्पूर्ण साहित्यिक परम्परा आपके मांस और मज्जा में प्रवाहित होनी चाहिए। यूरोप की अपनी एक बहुत ही कमतर साहित्यिक परम्परा है। हम लोगों की चुनौती और सौभग्य दोहरा बल्कि तेहरा है। हम लोग एक ऐसी साहित्यिक परम्परा के उत्तराधिकारी हैं जो किसी भी मायने में यूरोप से कमतर नहीं है।

दूसरे हम एक ऐसी इक्कीसवीं सदी की दुनिया में रहते हैं जिसमें यूरोप की साहित्यिक परम्परा पूरी दुनिया की परम्परा बन चुकी। एलियट का समकालीन कवि तुलसीदास से वाक़िब हुए बिना चल सकते आपको सेक्सपियर से भी वाक़िब होना ही पड़ेगा अगर आप सार्थक कविता लिखना चाहते हैं। इसीलिए मैं संजय शेफर्ड सहित सभी युवाओ से कहना चाहता हूं कि जीवन का अनुभव साहित्यिक अध्ययन का विकल्प नहीं हो सकता है। यह मान लेना, आमतौर पर हम तुलसीदास को एक एक्सक्यूज के तौर पर ले आते हैं। लेकिन उन्होंने इससे आगे भी बहुत कुछ कहा है हमें उस पर भी ध्यान देना चाहिए। और अब समय भी वह नहीं रहा, आप कबीरदास नहीं हैं, आप पंद्रहवीं सदी में नहीं रह रहे हैं, इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुके हैं। इसलिए मैं संजय और संजय के बहाने तमाम नौजवानों से यह कहूंगा, अपने अनुभव, अपनी भावना, इसके बिना साहित्य नहीं होता, लेकिन साहित्य परम्परा इसके अध्ययन के बिना भी साहित्य नहीं होता।

साहित्यकार की दूसरी सबसे बड़ी चुनौती या ताकत यह है कि आज की दुनिया में, किसी भी दुनिया में संभवत एक इकोनोमिक्स साहित्य के बिना काम चला सकता है, एक अंथरालॉगिस्ट काम चला सकता है परन्तु साहित्यकार ना अंथरोलॉजी के बिना काम चला सकता है और ना ही इकोनॉमी के बिना। यह जरूर नहीं की वह अंथरोलॉजी और इकोनोमिक्स के जर्नल पढता हो लेकिन इन दोनों का बुनियादी सेंस बहुत ही जरुरी है।