मोनालिसा की आँखों में उतरने की कोशिश - संजय शेफर्ड

कल रात्रि एक बहुत ही सजीव स्वप्न देखा। स्वप्न के दो छोर थे। एक तरफ शब्द था, दूसरी तरफ भी शब्द ही था। दूर कहीं रेगिस्तान के बीचोबीच दौड़ती, हांफती, पानी की बूंद दर बूंद के लिए तड़पती जिंदगी थी। एक औरत हताश, परेशान, पसीने से भीगी हुई आती है। आंसुओं की कुछ बूंदे विस्तृत रेतीले रेगिस्तान पर टपकाते हुए महसूस करती है कि उसके आंसुओं से रेगिस्तान की प्यास नहीं बुझने वाली। हताश नहीं होती है। हार नहीं मानती बस थोड़ा सा संयम बरतती है। और अपने आंचल को निचोड़ने लगती है। और तब तक निचोड़ती है जब तक कि आंचल का एक कोना फट नहीं जाता। आंचल के इस फटे हुए कोने में ममत्व है, प्यार है, मान और मनुहार है, अपनापन है, कहीं कहीं शांत प्रतिशोध भी पर अवसाद कहीं भी नहीं।
जिंदगी को बचाने कि यही कवायद सुमन केशरी के कविता संग्रह "मोनालिसा की आँखे " में दिखता है। किताब से बाहर झांकता हूं। अपनी आंखों पर पानी की छींटे मारता हूं तब जाकर मुझे पता चलता है कि - मैं कोई स्वप्न नहीं किताब को पढ़ते हुए एक सच देख और जी रहा था। पर स्वप्न इसलिए क्योंकि मोनालिसा की आंखों का सृजन साहित्य की धरा पर एक सपने के पुरे होने जैसा है। इतने सधे हुए शब्द, सटीक सारगर्भित लेखन और खोई हुई चीजों को उददेलित करता एक आनोखा पुनर्जागरण। सपने को सच होते देखना सचमुच कितना लाजवाब होता है न ? अभी संग्रह को पढ़ रहा हूं पर सच कहूं तो पूरे संग्रह में मुझे जिंदगी की तपती धूप में खड़ी, टुकड़ों -टुकड़ों में नरम छांव तलाशती एक स्त्री नजर आती है ... एक स्त्री जो अनेक परिभाषाओं के बाद भी अभी तक अपरिभाषित है। शायद मोनालिसा की आँखें .. भी उसी तलाश की एक मजबूत और बेहद शसक्त कड़ी है।
संग्रह का नाम, मोनालिसा की आंखें पहली दृष्टी में देखने पर एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा कर देता है। मोनालिसा पर लिखी गईं इस संग्रह में कुल चार कविताएं हैं। ...और मोनालिसा की आंखों पर तो बस एक .. फिर भला मोनालिसा की आँखे क्यों - ? संग्रह का नाम कुछ और क्यों नहीं रखा गया। इस संग्रह में ज्यादातर गोत्र की कविताए हैं। स्त्री मन की चीख -पुकार दर्द- व्यथा, मान -मनुहार, अपनापन, जीत और हार की कविताएं हैं। मां - बेटी के लाड - प्यार की कविताएं हैं। सपने हैं और उन सपनों के टूटने की दर्द जिरह और दुबारा जिंदगी में वापस आ पाने की तड़प भी है। और इससे थोड़ा और आगे बढ़ने का साहस करें तो जीवन के विविध पहलुओं की एक विस्तृत विविधिता। फिर इस संग्रह का नाम आखिर मोनालिसा की आंखें क्यों ?

पहली दृष्टी का यह सतही अवरोध वस्तुत: हर पाठक के मन में उठ सकता है। परन्तु संग्रह की पहली ही कविता उसके मन में उतरना प्रथम दृष्टी में उत्पन्न उस अवरोध को जार -जार कर देती है। जीवन की सतह पर दर्द ही दर्द बिखरा दिखाई देता है। मन में भी अथाह दर्द है। पर उस दर्द के बीच जो जीत की एक हल्की सी रेख है, जीवन के खारेपन में रीझती मुस्कान है। उसके लिए मन की सीलन भरी अंधेरी सूरंग में उतरना पड़ता है, तब जाकर एक वास्तविक बिंब बनता है। कविता संग्रह मोनालिसा की आंखें में भी यही बात जाहिर होती है। पहली सतही दृष्टी से थोड़े और गहराई में उतरने पर अचानक वह सवाल छूमंतर हो जाता है। पाठक दुबारा पुस्तक के कवर पेज को देखता है। बार -बार देखने पर मजबूर होता है। और अपने मन के अन्दर ही अन्दर विचारता है कि इस पुस्तक का (मोनालिसा की आंखें) भला इससे अच्छा नाम क्या हो सकता है ?
संग्रह की गहराईयों में उतरते हुए मैं भी यही पाता हूं कि जिस तरह मोनालिसा की आंखों में छुपे भाव, दर्द और जिरह को समझते हुए भी समझना आसन नहीं है, उसी तरह इस पुस्तक को भी सतही दृष्टी के आधार पर समझते हुए भी समझ पाना मुश्किल है। मोनालिसा की आंखों में बहुत कुछ स्पष्ट है ...और बहुत कुछ स्पष्ट होते हुए भी अपरिभाषित। सुमन केशरी की भी यही सबसे खास बात है। वह बहुत कुछ बिना कहे हुए भी कह जाती हैं। सुमन केशरी पाठको को एक ऐसा सकारात्मक मौका देती हैं ... जहां पर आप अपनी दृष्टी के आधार पर अपनी -अपनी परिभाषाएं गढ़ सकते हैं। सचमुच इस पुस्तक का इससे अच्छा और सशक्त पछ (नाम ) मोनालिसा की आंखें के आलावा कुछ हो ही नहीं सकता था। मोनालिसा की आंखें बिलकुल उपयुक्त नाम है।
उपयुक्त होने के कारणों में सबसे बड़ा कारण है। दृष्टी। मोनालिसा की आंखें जो तलाशना चाहती हैं। सुमने केशरी के मन की आंखों में भी वही तलाशती प्रतिविम्वित होती है। ... और पूरा का पूरा संग्रह एक तलाश ही तो है। ना नाने कितनी सहज संवेदनाओ, ना जाने कितनी मर्मचित्रों चित्रों से गुजरती यह तलाश, शब्दों के माध्यम से जीवन से सबंधों का विंध बांधती नजर आती है। औरों के लिए तप/ मोनालिसा की आंखे / माँ तुम एक छाया सी / सुनो बिटिया / जब से देखा है तुम्हें उकेरते चित्रों में / पूर्वजो को याद करते हुए / मछली / सपने / धमाके के बाद / चिडियां / बचाना / मणिकर्णिका / सम्बन्ध / और औरत। संग्रह की ऐसी ही कुछ कविताएं हैं।
शीर्षक औरों के लिए तप कविता में सुमन केशरी कहती हैं - औरों के लिए तप करने को पैदा हुई / जीव को औरत कहते हैं / कहती थी मां / चूल्हे के सामने से घुटनों को पकड़ / उठती कराहती मां / उसके हाथों की बनी रोटी / अक्सरहा कुछ नमकीन लगती थी। यह एक छोटी सी कविता है। परन्तु इस छोटी सी कविता की पीठ पर बहते ना जाने, एक औरत के कितने अनकहे दर्द, अपनी अपनी परिभाषाएं लिख रहे हैं। औरों के लिए ताप और रोटी के नमकीन होने के दो विरोधाभाषी प्रतिमान इतने सहज रूप से वह सबकुछ कह जाते हैं। जो एक औरत सह -गह कर भी नहीं कह पाती है।
शीर्षक मोनालिसा की आंखें कविता में सुमन केशरी की अभिव्यक्तियों का फलक इतना सहज, सरल, सजीव और विस्तृत फलक लिए हुए है कि उसमें झांकते हुए एक बार जिंदगी खो सी जाती है। कुछ पंक्तियां - आज देख रही हूं / मोनालिसा ... / जब वहां थी तो जाने कहां थी / ठंड में / चिडचिड़ाहट में / पांवों की सुजन में / अगली सुबह की तैयारियों में / न जाने कहां थी, जब मैं वहां थी। अंतिम पैरा में सुमन केशरी कहती हैं - आखिर उसी का अंश ही तो हूं मैं भी। सचमुच सुमन केशरी भी उसी जिजीविषा की एक मात्र अंश सरीखी अवसाद और प्रतिशोध के बावजूद शांत मन से अपनी संवेदनाओं को जाहिर करती हुई बिना किसी ताम झाम और नाटकीयता के आगे बढती जाती हैं। एक स्त्री का एक जगह पर होकर भी नहीं होना। महज एक सवाल नहीं, दर्द है, जिरह है, और खुद के अस्तित्व पर मडराते खतरे बानगी भी।
शीर्षक माँ तुम एक छाया सी कविता में माँ के लाड़ -प्यार और बिछड़ने के दर्द को जाहिर करती सुमन केशरी कहती है - मां / ऐसा क्यों होता है / मैं जब जब याद करती हूं तुम्हें / पहुंच जाती हूं / सन 6 2 की उस दोपहरी में / जिसे तुमने भारी चादर डाल बदल दिया था झुरमुट में / तुम सजीव छाया सी छुंकी / सर और कानों की लौ सहलाती / कुछ गुनगुना रही थी / अस्फुट स्वर में। यह मर्मचित्र सिर्फ सुमन ही उभार सकती हैं। ऐसा सजीव चित्रण इस संग्रह के आलावा अन्यत्र कहीं बमुश्किल ही मिल पाएगा। अंतिम पैरा में आगे कहती हैं कि - मुझे मेरे ही खेल की दुनिया में मगन कर आहिस्ता से चली गई तुम ... / आज भी जब मैं ढूंढ़ती हूं तुम्हें / तुम एक छाया सी दिखती हो / होने न होने के बीच कहीं। सचमुच मां के होने और नहीं होने के बीच में मां के ममत्व को ढूंढ़ पाना ... मोनालिसा की आंखों की मृग मरीचिका ही तो है।
शीर्षक सुनो बिटिया कविता में एक मां अपनी नन्ही बिटिया को सपने दिखलाती, अपनी रहो में उसकी राहों के कुछ चिन्ह दिखाने की सहज चेष्ठा करती हुई। जीवन के ना जाने कितने सपने दे जाती है। पर शब्दों का बहाव इतना सहज है की वास्तविकता के सारे उपमानो का स्पर्श पाकर पाठक के मन पर एक बहुत ही बड़ा बिम्ब बनाता हुआ अचानक उस सतरंगी चिड़िया की तरह जो अभी -अभी पिंजड़े से आजाद हुई है। कुछ पंक्तियां - सुनो बिटिया / मैं उड़ाती हूं / खिड़की के पार / चिड़िया बन तुम आना। खिड़की के इस पार और उस पार की दुनियां में कितना बड़ा अंतर है यह इन पंक्तियों से अनायास ही जाहिर हो जाता है। खिडकियों से बाहर छांकने की यह जिरह हर स्त्री की आंख में होती है ... यही कारण है की आज की हर दबी, कुचली, अवहेलित स्त्री में मुझे मोनालिसा ही नजर आती है। शीर्षक जब से देखा है तुम्हें उकेरते चित्रों को कविता को पढ़ते हुए शब्द अनायास ही गले के नीचे उतरते जाते हैं। और एक बार मन कविता से हट कर संग्रह पर केन्द्रित हो जाता है। संग्रह सिर्फ अर्थ की दृष्टी से नहीं भाव और शब्द की दृष्टी से भी बहुत ही उंचा स्थान रखता है। कुछ शब्द ऐसे हैं कविताओं में जिनका होना संग्रह को कालजयी होने का मार्ग दिखता है। जब से देखा है तुम्हें उकेरते चित्रों को कविता - जब से देखा है / तुम्हें उकेरते चित्रों को / भावमग्न / एक-एक रेखाओं पर / तुम्हारे कोमल स्पर्शों की छुवन / मेरे भीतर की रूह / छटपटाती है / इन रेखाओं में समा जाने को / खिल जाने को तुम्हारे भीतर / कमलवत / आखिर शिला देख कर ही तो रोया था कविमन अहिल्या के लिए ...
पूर्वजो को याद करते हुए कविता पढ़ते हुए मुझे बरबस अशोक वाजपेयी की याद आ गई। संग्रह के लोकार्पण के मौके पर उन्होंने कहा था की इस संग्रह में ज्यादातर कविताएं हमारे गोत्र की कविताएं है। हां, संग्रह में सचमुच कई कविताएं हमारे गोत्र की हैं। पर इनका फलक इतना विस्तृत है की यह व्यक्ति विशेष ही नहीं बल्कि देश दुनिया का प्रतिनिधित्व करती हैं। कुछ पंक्तियां - मैं जल की वह बूंद हूं / जो आँख से बही थी / और नाव से उछल / लहरों के हिंडोले में सवार / फट पड़े बादल की बारिश का हिस्सा बन / धरती में समाई थी। कविता मछली की अभिव्यक्तियां और अनुभूतियां इतनी सरस, सहज और कोमल है कि बस बढ़ते ही मन में उतर जाती है, ना तो इसे दुबारा पढने की जरुरत पड़ती है, ना ही दुबारा समझने की। इसलिए इस कविता को ही मैं रख देता हूं ताकि आप आपने आधार पर कविता को लिख पढ़ कर इसकी विवेचना कर सकें - वह रेत में दबी मछली थी / जो मुझे मिल गई / निर्जन बियाबान मरुस्थल में / पानी / तलाशते तलाशते ... / पानी बीएस उसकी आंखो में था / मुझे देख वह डबडबाई / और / मैंने अंजुरी भर पी लिया उस खरे जल को ...
सपने हमारे आंखों के परदे पर एक नया वृत्त तैयार करते हैं। और इस वृत्त को देखते देखते खो जाना हर किसी को अच्छा लगता है। फिर चाहे आसमान की ऊंचाई हो, सागर की गहराइ हो, या फिर चलते चलते अचानक ही खो जाने की जिरह। सबकुछ सहज लगते हुए भी कितना अनोखा होता है। हम सपनों के मध्य परस्पर आगे बढ़ते हैं और अचानक सीढियां गायब हो जाती हैं। ... और जीवन तमाम रहस्यों के मध्य कैद होकर रह जाता है। पर सपनों को देखने और जीने की चाहते इन्सान कहाँ छोड़ पाता है। हर रात और हर उस रात के कुछ रहस्यमय स्वप्न। एक एक करके जीवन की पगडंडियों पर जीवन प्रयत्न चलते रहते हैं। धमाके के बाद कविता बहुत ही मार्मिक है। इसकी मार्मिकता हिरदय को कुरेदकर भावों को जागृत करती जान पड़ती है। धमाके का इतना भिभत्स रूप इतने सहज रूप से इतना जोरदार प्रहार करेगा सोचना भी गवांर लगता है। पर सुमन केसरी की कलम कभी भी अपना संयम नहीं खोटी है, प्रतिशोध है, अवसाद है, गहरा प्रहार है पर किसी तरह की चीख पुकार नहीं है। कविता की चार पंक्तियां - कांपता है शिशु / धमाके से गर्भ में / सुख गई नाभिनाल से जूझता / खोजता है द्वार निकास का। चिड़िया कविता के भाव प्रकृति के प्रति प्रेम की वह अद्भुत मिशाल है जो प्रकृति को बचाने, सजाने, सवारने और आने वाली पीढ़ी को कुछ दे पाने की जिजीविषा को जाहिर करता है।
इसके आलावा इस संग्रह की सभी कविताएं एक बार सोचने की विवशता को जाहिर करती हैं। इन कविताओं को पढने के बाद ऐसा लगता है कि कुछ ना कुछ अंश कविता से टूटकर हमारे अन्दर रह गया है। पूरा संग्रह पढ्नीय, भावपूर्ण और उत्कृष्ट है। फिर भी बचाना / मणिकर्णिका और औरत कविता अपना एक विशिष्ट स्थान रखती है। औरत कविता आपके लिए - रेगिस्तान की तपती रेख पर / अपनी चुनरी बिछा / उस पर लोटा भर पानी / और उसी पर रोटियां रखकर / हथेली से आंखो को छाया देते हुए / औरत ने / ऍन सूरज की नाक के नीचे एक घर बना लिया। आखिर यही तो शब्दों के प्रति सुमन केशरी की आत्मीयता जो हर एक चीज को एक नवल अर्थ देता है। 
मैं इस समीक्षा को शब्द से समाप्त कर सकता हूं पर समाप्ति संग्रह की एक कविता से समाप्त करना ज्यादा उपयुक्त लग रहा है। कविता का शीर्षक है मैं बचा लेना चाहती हूँ - मैं बचा लेना चाहती हूँ / जमीन का एक टुकड़ा / खालिस मिट्टी और / नीचे दबे धरोहरों के साथ / उसमें शायद बची रह जाएगी / बारिश की बूंदों की नमी / धूप की गरमाहट / कुछ चांदनी / उसमें शायद बची रह जाएगी / चिंटियों की बांबी / चिड़िया की चोंच से गिरा कोई दाना / बाँस का एक झुड़मुट / जिससे बांसुरी की आवाज गूंजती होगी... यह संग्रह अपनी भाषा, अपने शिल्प, अपने सहज भाव, उन्मुक्त विचार और काब्य कौशल की उत्कृष्टता के लिए जाना जाएगा।