डिम्पल चौधरी की कविताएं



डिम्पल सिंह चौधरी की कविताओ में एक अजीब सी जिरह है और जीवन की कसक भी। यह कविताएं हमें एक ऐसी दुनियां में ले जाती हैं जहां शोर तो है ; साथ ही साथ एक अजीब सी चुप्पी भी साथ साथ चलती है। कई बार ऐसा लगता है की डिंपल अपनी उसी चुप्पी को अपनी भावनाओ, अपनी संवेदनाओ, अपने शब्दों के जरिये तोड़ना चाहती हैं। मन के पिंजड़े से बाहर निकलना चाहती हैं; पर आज़ाद मन इतना आजाद भी कहां ...? आप भी पढ़िए डिंपल की कविताएं ...

1- आईएम स्टील अलाइव 

ये जो नब्जों की लहूलुहान
दीवारों पर
रेंगती हुई जिंदगी
गाहे-ब-गाहे
नज़र मैं चुभ सी जाती हैं न
दरअसल
ग़ौर से देखो
तो नब्जों की दीवार से
साँसों का छूटता हुआ
पलस्तर है
जो रिस रहा है,

मैं रोज़
उतार कर फेंक देता हूँ
जिस्म से उदासियाँ सारी
और
रोज़ ही
रूह के शामियाने को
चीख़ों के लिबाज़ से तर भी पाता हूँ
यूं तो
दुश्वारियाँ किसे नहीं
ज़िंदगानी मैं
मगर
होता है यूं भी
मेरे मौला
कि
मैं...अब साँस लेते लेते थक सा जाता हूँ
मैं...
अब साँस लेते लेते थक सा जाता हूँ...

2-  "नीली नब्ज़ वाली लड़की..."
 
सुनो
ये जो तुम्हारी हथेलियों पर
पसरी हुई नब्जें हैं ना,
ज़रा ग़ौर से देखना इन्हें
ये कहीं रूह से चीखती वो
खामोशियाँ तो नहीं जो
लिपट गयी हैं तेरे जिस्म से
नीली नीली कतारें बनके
जिनमे उतर आया है ज़हर
आने वाले कल  का
जिसमें नब्जें फरकेंगी तो सही मगर
सींच चुकी होंगी आज की हर सोखी
जिसमे कभी तुम खिलती हो
तो मैं हँसता हूँ,
तुम सोख लेती हो
मेरे उदास होंठों की सारी नमी,
तो मैं रोंप देता हूँ
तुम्हारे भीतर सारा प्रेम...
सुनो
ऐसा करते हैं
कि तुम भींच लो मुझे अपनी बाजुओं में
और फिर बाँध दो कस के
उन सहमी, कांपती अपनी नब्जों से
फिर देखना मैं ही मैं
धडकुंगा तुम में,
बहूँगा तुम में लहू से तेज़,
शायद सांसों से भी...
और जब नहीं भी रहूँगा एक दिन
तब भी, जीऊंगा तुम में
आस बनकर, हर साँस बनकर
तुम्हारी उन...

"नीली-नीली नब्जों में...

3 - इंतजार

सारी आवाजों का
शोर
एक साथ कानों में
दिमाग में जेहन में
गूंज रहा है
कितनी बेचैन है रुह
मां को कहते सुन पा रही हूं
की अब घर आजा
बहन को साथ का इंतजार
बाबा की बूढी आंखों को
विदाई का,
दोस्त को एक बार फिर से
डांटने का
किसी खास को
मुझे एक नजर देखने का
मगर जिंदगी को
एक कतरा सुकून का
एक बार
जिन्दा सा कुछ महसूस होने का 
 
4- यथार्थ का बवंडर


निगाहबंद करके
मन की दराज़ में
यादों की रेशम परत पर
रख दिया है मैंने
उसके साथ गुज़रे
हर क़ीमती लम्हे को
ख़तरे के हर इरादे से परे
किसी और स्पर्श की कुढ़न से दूर
ओझल हर अजनबी की घूरती नज़रों से

मगर कभी-कभी...
यथार्थ की गठरी से उठा
तिनके सा झोंका भी
हिला जाता है मेरा वजूद
और रेज़ा रेज़ा
पल में बिखर के सब चूर
अंतर्मन के वो सब दराज़ टूटते जाते हैं
उस रेशम बरक से उड़कर
यादों की स्याही काफ़ूर हो जाती है
सफ़ेद और काली यादों के वबंडर से
लड़ते लड़ते खाली हो गया वो बरक
जो मेरी निगाहबंद यादों पर
लिखा करता था रेशम के लफ़्ज़
अब इंतज़ार की साख़ों पर
पलकें टकटकी लगाए हैं
कि काश रुके ये बवंडर
और मेरी हर दराज़ में हर बरक
उसी तरह वापस सिमट जाए...
 
5- जब तुम पेट से थीं... 

बताओ तो क्या ये सच है ?
जब तुम पेट से थीं
रोप रहीं थीं इक बीज
गर्भ गृह में,
तब
होता था यूँ भी
कि
उसे खा, पानी देते देते
मुझे सोच लेती थीं तुम,
बतिया लेती थीं उससे मेरी बातें,
खाली दीवारों पर टांग लेती थीं
मेरी शक्ल,
और उँगलियों से छाप देती थीं
मेरे नैन-नक्श
अपने गर्भ पर !

बताओ तो क्या ये सच है ?

मेरे प्रेम का दरख्त
जो पनप चुका था
तुम्हारे अहसासों मैं,
सांसों में,
कांपती आवाज़ में,
उस दरख्त की शाखें
फ़ैल गई थीं तुम्हारे गर्भ तक !

बताओ तो क्या ये सच है ?

मेरे विरह का दंश
जब तुम झेलती रहीं होंगी,
खुद को कोसती,
कचोटती रही होगी,
अपना हाथ बढाकर आगे
जब
खाली हाथ ही रह जाती होगी,
तब-तब
उस गर्भ से मेरी यादें बाँटती होगी !

बताओ तो क्या ये सच है ?

अपने नाम से मेरे नाम तक
उसकी पहचान सजाया करती थी !
तुम्हें भाता था
रंग
मेरी आँखों का
उनमे देखा करती थी अपना अक्स,
ज़रा बताओ तो
उस नन्हे फूल की आँखों का रंग
मुझ पर गया है
या
"अपने पिता पर ??? "
 ( मेरे हृदय की अब तक की सबसे करीबी और पसंदीदा रचना है )

 6-टूटते रिश्ते की कराह...

जोर से गूँज गई थी
आवाज़
सन्नाटे को चीरती,
गालों पर रसीद कर दिए गए
निशान
प्रेम के नहीं
उँगलियों के
जिनसे छूकर
ली गयीं थीं बलैयां...
पैरों पर थी कराह
उसीके पैरों की
मगर कराह थी
रौंदने की, कुचलने की...
उधेड़ दी गयी बखिया
आत्मा की,
तानों से कर दिए गए
लहूलुहान
ज़हन भी और दिमाग भी...
सुन्न है सब यूँ तो
मगर
कांपते होंठों पर
जमी हुई हैं
अब भी वही बूँदें
जो
सिसकती आँखों से
तो टपक गईं
मगर अब
कहाँ ढूंढें
आस्तित्व
कहीं डूब न जाए
वो,
कहीं डूब न जाऊं
मैं,
और फिर सब ख़त्म,
प्यार भी,
नफ़रत भी...
 
7- यादों का तर बोसा ...

सुनो राजकुमारी,
मेरी सांसों की अथाह
बंदिशों में
तुम
नब्ज़ की तरह फड़कती हो
मेरे गीत, ग़ज़लों की
आँखों में जो
सावन उतर आता है ना
वो तेरे लौटने की आस की
भीगी कोपलें ही तो हैं,
मैं जब भी
तेरी बीती याद का कोई लम्हा
ग़म के बोसे से तर
बरक पर
बटोरना चाहता हूँ
तब-तब
उस सादे बरक से कराहती नज़्म
मेरे कान को उसके
पास तक
ले जाने का इशारा करती है
और एक आह के साथ
सवाल करती है...
"क्यों साहब,...
आज फिर उसके हिज्र से
मेरी स्याह आँखों में....
काजल लगाने आए हो ...!!!

8- तेरी मोहर

जब ज़ख्मों के
मुहाने पर
आस की नब्ज़ ढूंढते ढूंढते
जिंदगी
इनकार की ओट तक
आ पहुंची
तब
हौले से, धीमे से
'आह' के हुंकारे ने
मेरे भीतर तेरी मौजूदगी की
मोहर लगा दी...

9- लो साहब... मेरी घुटन ले जाओ...

ज़ोर-ज़ोर से
जो धड़का सा है लगा
मन पर, आत्मा की गिरह पर
वो ज़िंदगी के बेहद क़रीब से गुज़री
कुछ पिछली सांसें थी शायद
खामोशी के दरकते कुछ निशां
कोने में और जवां होते
अट्टाहस का विलाप
या आने वाले कल की कोख में
पल रही किसी अनहोनी का ख़ौफ़
यकीं ना मानो तो
लो साबह ....देख लो
मेरी पेशानी पर
सीना तान कर
फैली हुईं शिकनें,
लहू में रेंगती, बिलखती सी नब्ज़
बोझिल पलकों पर
मद्विम ख़्वाबों की केंचुड़ी


अब गर और भी
जानना चाहो साहब...
तो
फिर ऐसा करो
कि
ये आंखें उधार ले जाओ
अंधेरे से घबरा के मर जाओगे,
मेरी अधूरी कहानी ले जाओ
रोज नई मौत के लहू से तर जाओगे,
गर फिर भी
ख्वाहिश की अंगड़ाई का फ़न उठे
तो
मेरी मौत ले जाओ,
ज़िंदगी के हाफीज़ों को तरस जाओगे...


10- मेरी चुप्पी का सच...


हम दोनों ही
जो एक दूसरे के साथ
जीने की ज़िद को
साँसों की सुलगती जंजीरों में
घोट के रखते हैं न
वो मुरझाए हुए वक़्त की
दरारें सी चुभती हैं...

तुम,
जो अपनी कराहती आत्मा पर
बिछाए हुए हो मेरी रूह को
मरहम की तरह,
कि जब भी जी भर आया
तो खाली हो गई मुझ मैं,
हाँ तुम
जो अपने होंठों के आसपास कहीं
सहेजे हुए हो मेरे कान
कि जी भर के कर लीं
बातें सारी
और
टेक दीं शिकायतें किसीनवाज़ीकी तरह

सुनो,
जब तुम फोन पर लंबी खामोशी के बाद
हल्का सा कुछ फुसफुसाती हो न
तब मैं खुद को भरा हुआ पाता हूं
तुम्हारे अंदर...

मगर
कहीं ऐसा न हो
कि
अपनी आपबीती के ढेर पर पहुँच कर
जब मैं
किसी फैसले की ढलान से ररकूँ,
तब वक़्त...

यही मुरझाया हुआ वक़्त
ऐसी लंबी जम्हाई ले
कि
मजबूरी की गठरियों के हवाले देती हुई तुम
ठहर न पाओ,
और
फेंक दो उतार कर
मेरी इसी रूह का बोझ
और मैं’...

मैं भी तुम्हें रोक न पाऊँ...