दैहिकता के संदर्भ में प्रेम कविता

इंडिया इंटरनेशनल सेंटर दिल्ली में आयोजित संजय शेफर्ड के कविता संग्रहों '' पत्थरों की मुस्कराहट '' और '' अस्वीकृतियों के बाद '' के लोकार्पण के अवसर पर पुस्तक के बहाने प्रेम पर जमकर चर्चा हुई। संजय शेफर्ड के दोनों ही संग्रहों का एक साथ आना अपने आप में ही चर्चा का विषय है। दोनों संग्रहों को पढने के बाद पता चलता है कि उनकी कविताओं का मूल विषय प्रेम, प्रकृति और स्त्री है ; लेकिन प्रेम का स्थान थोड़ा ज्यादा है, और प्रेम में देह का सन्दर्भ भी। संजय शेफर्ड कविता में प्रेम की बात करते हैं परन्तु उससे पहले देह की और उससे भी पहले आत्मा की। उनकी प्रेम कविताओं को पढ़कर एक ऐसा आवरण तैयार होता है जहां प्रेम के लिए सारे विकल्प खुले जान पड़ते हैं, और उससे पहले देह के भी। उनकी कवितायों से होकर गुजरते हुए कभी कभी इस बात का आभाष होता है कि उनके लिए दैहिकता के सन्दर्भ उतने ही सहज हैं जितना प्रेम। उनकी ही कविता की एक पंक्ति '' देह की चौखट से होकर पार करना होता है आत्मा का दरवाजा, प्रेम आखिर एक खाली कमरा ही तो है ? '' वह सब कुछ कह जाती हैं जो वह कहना चाहते हैं।

संग्रह की कविताओं में प्रेम के बहुतेरे विकल्प हैं लेकिन प्रेम के तमाम विकल्पों से होकर गुजरते हुए वह एक ऐसी दुनिया की कल्पना करते हैं जहां जीवन की अभिव्यक्तियां सहज और सरल हों। जहां प्रेम की ही तरह देह के भी तमाम समीकरणों को स्थापित किया जा सके, चर्चा का विषय बनाया जा सके। सीधे तौर पर वह अपनी कविताओं के माध्यम से यह बात स्पष्ट का देना चाहते हैं कि प्रेम का रास्ता देह से होकर जाता है ना कि आत्मा से, लेकिन उनके कहने की शैली इतनी अनोखी है कि हमारी आपकी ना चाहते हुए भी स्वीकारोक्ति बन जाती है। वर्तमान के जाने माने समीक्षक और आलोचक ओम निश्चल कहते हैं कि ''संजय शेफर्ड की कविताएं बताती हैं कि प्रेम जीवन का महोत्सव है। जैसे कृष्णा सोबती कहती हैं सेक्स जीवन का महाभाव है। ये कविताएं इस महाभाव का रचनात्मक अनुष्ठान हैं। यहां देह, मन, आत्मा के सारे उद्यम उस प्रेम को पाने जीने और न खोने देने के लिए प्रतिश्रुत दिखते हैं जिसके लिए कवि पहले ही कह गया है: प्यार अगर थामता न पथ पर उंगली इस बीमार उमर की। हर पीड़ा वेश्या बन जाती, हर आंसू आवारा होता।''

आवारगी की इस हद तक पहुंचने की बजाय संजय शेफर्ड अपनी सृजनशीलता के विवधतापूर्ण आयाम को शब्दों में पिरोकर कविताओं का एक ऐसा संसार रचते हैं जिसमें प्रेम है, आत्मा और देह है, और जिंदगी भी है। संजय युवा हैं और युवा मन की अभिव्यक्तियों और भाषा को गहराई से समझते हैं। शायद इसीलिए आज की युवा पीढ़ी उनकी कविताओं की मुरीद दिखती है। दिल्ली जैसे महानगर में किसी साहित्य कार्यक्रम में जब 30 - 35 लोगों की उपस्तिथि मुश्किल जान पड़ रही हो तो 150 के आसपास लोगों का विमोचन के मौके पर अपनी उपस्तिथि दर्ज करना और कार्यक्रम ख़त्म हो जाने तक बने रहना अपने आप में भी एक बड़ी बात है। युवाओं की जो मौजूदगी कार्यक्रम में दिखाई दी उससे एक और चीज जो जाहिर होती है वह है साहित्य के प्रति युवाओं का झुकाव और भागीदारी। वर्तमान के जाने- माने आलोचक और साहित्यकार पुरुषोत्तम अग्रवाल जो अपनी बेवाकी के लिए जाने जाते हैं स्वयं ही आश्वस्तता व्यक्त करते हुए कहते हैं कि यहां मौजूद ऑडियंस की औसत उम्र 25 साल है। अगर संजय की कवितायेँ इनके तक पहुँच रही हैं तो एक दिन ये लोग अन्य कवियों और कवितायों की तक पहुंचेंगे और साहित्य का भविष्य उज्जवल बना रहेगा।

इसके पीछे के आकर्षण को संजय की आम बातचीत की भाषा को माना जा सकता है, संजय कवितायेँ नहीं लिखते, बल्कि अपनी बात लिखते हैं और आज के युवा पीढ़ी को आम बातचीत की भाषा में साहित्य की सार्थकता के हे सन्दर्भ चाहिए। प्रेम चाहिए, प्रेम में दैहिक तृप्ति और सार्थक साहित्य भी जो सार्थक होते हुए भी उबाऊं ना हो, जो उनकी बात करता, उनकी भाषा बोलता हो। 


ज्योति बत्रा, दैनिक सवेरा