1 - मैं ; भावनाओं की समुद्र हूँ
मैं ; भावनाओं की समुद्र हूँ
मैंने सभ्यता ; संस्कारों का आंचल ओढ़ा हैं... //
मै साक्षी हूँ ... अपने भीतर खीचती उन अनगिनत ....
आड़ी ;टेड़ी ; तिरछी रेखाओं कि... //
जो मुझसे हजारों सवाल पूंछती हैं
शून्य सी मेरी भावनाएं
जिनका उभरने के साथ ही अंत हो जाता हैं... //
नहीं मुमकिन है
मेरा मुझ जैसा दिखना
क्यूंकि मेरी भावनाओं का आदि भी यहीं हैं और अंत भी.....//
2- क्या हो तुम ?
मै अपनी डायरी में बिना ...
तुम्हारा नाम डाले ...
तुम्हारे बारे में लिखती हूँ...//
ओ...
अदृश्य ;घमंडी लड़के ...//
सूरज की तरह तुम तपते हो......
ऊँट की तरह तुम लम्बे दिखते हो...
मिट्टी सा भूरा रंग हैं तुम्हारा ...
न जाने किस बात पर अकड़ते हो... //
ऐसा मैंने
क्या बिगाड़ा तुम्हारा....??
जो... मेरे सवालों से तुम बचते हो....//
तुम कोई...
शाहरुख़....सलमान नहीं....
तुम जमीं और आसमान नही...//
तुम क्या हो...
यह सिर्फ तुम जानते हो....
मै क्यू कह दूं ...
तुम .....
3 - तुम्हारी स्मृतियां
तुम्हारी दी स्मृतियां
धूल से लथपथ हो रही हैं
मैंने उन्हें बंद अलमारी में रखा हैं
अब जो खंडहर सी बनती जा रही है
यह वो स्मृतियां हैं
जो तुमसे...
मुझे विरासत में मिली हैं
जिनका मुझ संग
प्रतिरोध आज भी जारी हैं
यह स्मृतियां ...
तुम संग बीते मेरे समय ;
मेरे वजूद ;
मेरे जीवन की अंतिम परिचय हैं....//
यह और कुछ नहीं
तुम्हारा रचा चक्रव्यूह हैं
आज भी जो
मुझे भटकाने का काम करता रहा हैं.....//
4 - मेरा होना सत्य है
एक अजीब सा एहसास
जो अंदर तक समाया है ... //
जो तुमसे जुड़ा है
जिससे मैं जुडी हूँ
पर शायद तुम नहीं.......//
इस एहसास में
मेरा होना सत्य है....//
लेकिन तुम्हारा होना ...
मात्र मेरी कल्पना......//
यह कल्पना रुपी जाल
अपने आस-पास मैंने ही बुना है
यह जानते हुए कि
यह सत्यता के धरातल पर टिक नहीं पाएगा... //
फिर भी मै इसे जीना चाहती हूँ
मुझे विश्वास हैं कि मैं रेंगते -रेंगते ही सही
अपने इस सत्य को कल्पना में बदल दूँगी... //
और अगर नमुमकिन हुआ
तो... दफना दूँगी...
अपने ही मन के भीतर कहीं...//
क्यूंकि दफन कि गई चीजों की
पुन : उत्पति नहीं होती ... //
5 - लापरवाही
मै 18 साल हो गया
वादे के मुताबिक़ मम्मी - पापा
ने बाइक तोहफे में दी
साथ ही मुझसे भी वायदा लिया... //
बाइक धीरे चलाने का
ट्रैफिक के सभी नियमों का पालन करने का
बस क्या था....//
निकल पड़ा ...
दोस्तों के साथ मौज मस्ती करने... //
केक कटा; मुर्गा कटा;
दारू की बोतले खुली.... //
ऐसे डूबे कि रात के एक कब बजे पता ही नही चला... //
नशे में धूत हो चूका था
गाडी चलाना तो दूर
गाडी सम्भालना भी मुश्किल हो रहा था...//
लेकिन टशन जो दिखाना था
अब बाइक हवा से बाते कर रही थी... //
एक के बाद एक सिगनल तोड़ता रहा... //
के तभी अचानक... //
धाड़ -धुड ; धडाम
जब आँख खुली तो
माँ बुरी तरह रो रही थी
पापा.....बस खामोश थे //
मैने माँ से कहा
माँ चुप हो जा
मै ठीक हूँ मुझे कुछ नहीं हुआ //
पापा प्लीज इस बार माफ़ कर दो
अगली बार ऐसी गलती नही होगी //
पर कोई मुझे सुन ही नही रहा //
माँ न जाने सफेद चद्दर में लिपटे एक शरीर के पास बैठे
रोय जा रही हैं
मेरे लाल एक बार उठ जा ...बस एक बार....//
मुझे समझ नही आ रहा यह हो क्या रहा हैं //
जब उस चेहरे से चद्दर हटाई तो //
मै दंग रह गया......
हूबहू मेरी ही शक्ल का व्यकि वहां लेटा था //
यह देख मै चकित रह गया
तभी कुछ देर बाद
मुझे एहसास होता हैं वो कोई बहरूपिया नही //
मै ही हूँ .....
मेरा शरीर और आत्मा अब अलग हो चुकी हैं //
मेरा जन्मदिन
मेरे जन्म का अंतिम दिन बनकर रह गया //
6 - वह आदमी
रोज़ मै इस बूढ़े आदमी को देखती हूँ
मिटटी का पुतला सा लगता हैं
अपने शरीर से भी भारी बक्सा
काँधे पर टाँगे रखता है
टूटी - फूटी चप्पलों कि मरम्मत करता हैं... //
इस कदर बुढा है कि...
उसका काँपता शरीर
आपको अंदर तक कम्पित कर देता हैं
उसका अंग-प्रत्यंग
न जाने कब का गल चूका हैं... //
वो बर्फ कि तरह घुलता जा रहा है
अगर पूरी काया में कहीं
चमक दिखाई देती है तो सिर्फ और सिर्फ
उसके सफेद बालों में... //
उसके चेहरे पर
बेहिसाब झुर्रियां हैं ... //
अपनी अधखुली आँखों से
वो कई कीले जूते में ठोकता है
जो उसकी पेट की भूख
शांत करने का काम करती हैं... //
जूता जोड़ते वक्त
कई बार हथौड़ा उसके हाथ में लग जाता है
कील उसकी उँगलियों में
गड़ जाती हैं... //
बात करने पर वो
अपनी उस काल्पनिक दुनिया में ले जाता है
जो उसका भूतकाल था... //
उसके उस काल में वो
भरे-पुरे परिवार का हिस्सा था //
पर आज ये बेनाम तकलीफे
उसकी जिंदगी का हिस्सा बन गई हैं... //
मै रोज़ उसे देखा करती हूँ
अपनी भाग्य की लकीरों में कील ठोकते
मजबूत बनते हुए ... //
7 - रात की चौकीदारी
आजकल न जाने क्यूं ?
आँखों से नींद गायब है
रात भर खुली आंखें
जाल बुनती रहती हैं... //
कमरे की छत पर दो छिपकली
गश्त लगाती दिखती हैं... //
ठीक 11 बजे ...
चौकीदार अपने कार्य में सलंगन हो जाता हैं... //
उसका बार- बार
"जागते रहो" का सम्बोधन
मुझे ही सम्बोधित कर रहा होता है ... //
सन्नाटा इतना अधिक होता हैं कि
मेरे घट में उतरने वाली
पानी की हर एक बूंद को
मैं सुन पाती हूँ... //
रात की ठंडी हवाएं
जैसे.... बार-बार...
मेरे कानो में आकर कुछ कह रही हो
और जिसे समझने में
मै असमर्थ हूँ... //
रात के अँधेरे में
सभी चीज़े
निर्जीव
दिखाई दे रही हैं... //
सभी गहरी निद्रा में हैं... //
सजीव हैं तो केवल
गश्त लगाती वह "छिपकली"
"चौकीदार"
और
"मै"
8 - तुम परिचित अपरिचित से
तुम परिचित से अक्सर आकर.......//
मुझसे परिचित होते हो...//
अँधेरे में तुम्हारी परछाई से अक्सर मतभेद हो जाते हैं... //
तुम्हारे अनुसार तुम अक्सर सही
मै अक्सर गलत होती हूँ... //
तुम्हारा काम रूठना... //
मेरा काम अक्सर मनाना होता है ... //
तुम्हारा मेरे साथ साथ चलने का आभाष
मेरा ही पैदा किया वहम है
क्यूंकि तुम अक्सर अपने रास्ते चलते हो
और मैं अपनी राह पर ... //
तुम परिचित से अक्सर आकर ....//
मुझसे अपरिचित होते हो.....//