जीवन का अनुभव साहित्य अध्ययन का विकल्प नहीं: पुरुषोत्तम अग्रवाल

इंडिया इंटरनेशनल सेंटर दिल्ली में संजय शेफर्ड के युगल कविता संग्रहों 'पत्थरों की मुस्कराहट' और 'अस्वीकृतियों के बाद' के विमोचन के मौके पर परिचर्चा बेहद ही विविधतापूर्ण रही। मंच पर वर्तमान के जाने माने कवि व आलोचक अशोक कुमार पाण्डेय और हिन्दी साहित्य के प्रसांगिक समीक्षक ओम निश्चल की मौजूदगी और सार्थक  विवेचना बहुत ही सारगर्भित रही। देश के प्रख्यात साहित्यकार व वरिष्ठ आलोचक श्री पुरुषोत्तम अग्रवाल का इस मौके पर लेखन कर्म पर दिया गया वक्तव्य बहुत ही महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ ऐतिहासिक रहा। वर्तमान अतीत और भविष्य के सन्दर्भ में उनके वक्तव्य की महत्ता को देखते हुए दो भागों में तैयार किया गया है। 

कविता पर पुरुषोत्तम अग्रवाल का वक्तव्य 

( भाग- पहला )

सबसे पहले तो मैं अपनी दो-तीन चीजों पर प्रसन्नता जाहिर करना चाहता हूं कि हिंदी से जुड़े हुए बहुत कम कार्यक्रम ऐसे होते हैं जिसमें हिस्सा लेने वाली ऑडिन्स की औसत आयु 30 साल के आसपास मानी जा सकती है। एक बात जो मैंने बनारस के एक कार्यक्रम में कह दी थी, उस वक़्त मेरे साथ ओम निश्चल जी भी थे काफी गालियां खाई थी। लेकिन बात तो सत्य थी, इसलिए गालियां देने वाले देते रहें। मैंने यह कह दिया था कि हिंदी साहित्य धीरे धीरे वृद्धों का मनोविनोद बनता जा रहा है तो बनारस के बहुत से लोग मुझसे खफा हो गए लेकिन यह वास्तविकता है। इसलिए यहां मैं बहुत ही निजी प्रसन्नता जाहिर करना चाहता हूं कि संजय के कारण, संजय के उदार एम्प्लायर के कारण, संजय की फेसबुक पर इतनी मित्रताओं के कारण यहां इतने सारे लोग मौजूद हैं। इसके लिए मैं बेहद खुश हूं और कुछ उम्मीद बनती है, क्योकि यह नौजवान संजय की दोस्ती के कारण अगर संजय की कविता तक पहुंचेंगे तो उम्मीद करनी चाहिए कि अन्य कवियों तक पहुंचेंगे, अन्य तरह के लेखन तक भी पहुंचेंगे और हिंदी साहित्य और भाषा दोनों को जो मुझ जैसे व्यक्ति को कभी-कभी लगता है कि नौजवानों के बीच में उसकी प्रजेंस काम होती जा रही है वह फिर से शायद वापस मिलाने के आसार हों, तो एक तो मैं इस पर अपनी प्रसन्नता जाहिर करना चाहता हूं।

दूसरी बात यह कि ऐसे बहुत ही कम कार्यक्रम होते हैं जिसमें सचमुच उत्सव जैसा माहौल होता है, हिन्दी की दूसरी सबसे बड़ी समस्या यह है एक हिन्दी का अध्यापक होने के नाते जानता हूं। पच्चीस साल मैंने पढ़ाया है - कि बीए में दाखिला लेते ही मनुष्य को बोकराहट हो जाता है। दुनिया के सारे गम उसके चहरे पर झलकने लगते हैं, मुझे अपने क्लास में यह कहना पड़ता था, लगभग हर क्लास में कहता था कि मेरे क्लास में इतना दुखी होकर मत बैठा करों दुनियां में और भी दुख है लेकिन यह दुख कुछ समझ में नहीं आता। इसलिए भी बहुत प्रसन्नता है कि इतने अच्छे, इतनी हंसी-ख़ुशी के माहौल में हम लोग मिल रहे हैं।

तीसरी बात यह कि जो अशोक ने कहा कि 20 साल बाद संजय बड़े कवि होंगे, तब आयोजन होगा तो बुलाएंगे भी या नहीं, बड़े लोगो को बुलाएंगे, मैं यह बात यकीन के साथ कहना चाहता हूं और पूरी गंभीरता के साथ कि अशोक अपना सोशल एक्टिविज्म थोड़ा कम कर दें और फेसबुक पर दिए जाने वाले वक़्त को कुछ काम कर दें तो मैं यह बात पूरी गंभीरता और गर्व के साथ कह सकता हूं, मुझे इस बात का व्य्क्तिगततौर पर अहसास है कि मैं बीस साल बाद एक अत्यंत हिंदी के महत्वपूर्ण कवि के साथ मंच पर बैठा रहूंगा।

संजय के सन्दर्भ में एक और मत्वपूर्ण बात जो मैं कहना चाहता हूं कि इतनी सी उम्र में आप दो चार उद्योग भी चला रहे हो, चार-पांच देश भी घूम आए हो, ग्यारह सौ कविताएं भी लिख दी है, दो चार उपन्यास भी लिख गई दिए होंगे, अच्छा एक उपन्यास भी लिखा है। लेकिन इस बात की मैं तारीफ करूंगा की संजय ने यह बात बड़ी ही साफगोई से लिखी है। लेखन क्या है सही मायने में तरह से जान नहीं पाया हूं। पाठ्यक्रम की किताबों के आलावा मैंने कभी भी साहित्य नहीं पढ़ा। हां, लेकिन मैंने जीवन को पढ़ा है, सामाजिक परिस्तिथियों के देखा, समझा, झेला है। कला और संस्कृति को झेला है, भारत के कोने-से परिचित होने के बाद वर्तमान में कई देशों के भ्रमण से खुद में एक अलग तरह की सोच को विकसित होते देख रहा हूं। इसके बावजूद मैं उन लोगों में से हूं चाहे भले ही मेरी बात किसी को बुरी अथवा पुरानी जड़तापन का प्रतीक लगे, यह मानता हूं कि किसी भी भाषा के साहित्य में अपनी उपस्तिथि दर्ज करने के लिए उस साहित्यिक परम्परा से अवगत होना बेहद ही जरुरी है। तो उस परम्परा से वाक़िब हुए बिना, उस परम्परा में खुदको अवस्थित किये बिना मानीखेज साहित्य नहीं लिखा जा सकता है।

जैसा कि हर प्रेम अभूतपूर्व होता है, मैं ऐसा नहीं मानता की बाइस साल की उम्र में आदमी ने एक ही प्रेम किया हो। संजय के सन्दर्भ में मैं यह कहना चाहूंगा कि पूरी आशंका है कि यह पहला प्रेम नहीं है। परन्तु पहला हो या पांचवा क्या फर्क पड़ता है, प्रेम तो प्रेम है। हर व्यक्ति का प्रेम अभूतपूर्व अनुभव है, अद्वितीय अनुभव है, उस प्रेम की अभिव्यक्ति अभूतपूर्व हो यह जरुरी नहीं है। मेरा प्रेम मेरे लिए अभूतपूर्व है, आपके लिए मानीखेज तब है जब मेरी अभिव्यक्ति में आपको कुछ अभूतपूर्व होता दिखे। अगर मैं अपनी प्रेमिका से यह कहता हूं कि तुम ये हो, वह हो, दुनिया के करोडो प्रेमी मेरे से पहले कह चुके होंगे, मेरे बाद बाद भी कहेंगे। प्रेम का आरम्भ कई बार झूठ से होता है, हालांकि अधिकांशत झूठ से ही होता है। परन्तु मेरे लिए वह झूठ महत्वपूर्ण तब होगा जब ऐसा लगे कि ऐसा झूठ अभी तक इस भाषा में किसी ने नहीं बोला था।

एलियट ने लिखा है कि कोई व्यक्ति जो 25 साल के बाद कवि रहना चाहता है, हमारे गुरुदेव नामवर सिंह कहते हैं कि 15 की उम्र में जो आदमी कविता ना लिखी हो वह आदमी नहीं ठूठ है। हम सब लिखते भी आमतौर पर सभी लिखते हैं, और पहली कविता ज्यादातर पडोसी अथवा पड़ोसन के लिखी जाती है। एलियट ने यह कहा कि अगर आप 25 साल के बाद कवि रहना चाहते हैं तो यूरोप की सम्पूर्ण साहित्यिक परम्परा आपके मांस और मज्जा में प्रवाहित होनी चाहिए। यूरोप की अपनी एक बहुत ही कमतर साहित्यिक परम्परा है। हम लोगों की चुनौती और सौभग्य दोहरा बल्कि तेहरा है। हम लोग एक ऐसी साहित्यिक परम्परा के उत्तराधिकारी हैं जो किसी भी मायने में यूरोप से कमतर नहीं है।

दूसरे हम एक ऐसी इक्कीसवीं सदी की दुनिया में रहते हैं जिसमें यूरोप की साहित्यिक परम्परा पूरी दुनिया की परम्परा बन चुकी। एलियट का समकालीन कवि तुलसीदास से वाक़िब हुए बिना चल सकते आपको सेक्सपियर से भी वाक़िब होना ही पड़ेगा अगर आप सार्थक कविता लिखना चाहते हैं। इसीलिए मैं संजय शेफर्ड सहित सभी युवाओ से कहना चाहता हूं कि जीवन का अनुभव साहित्यिक अध्ययन का विकल्प नहीं हो सकता है। यह मान लेना, आमतौर पर हम तुलसीदास को एक एक्सक्यूज के तौर पर ले आते हैं। लेकिन उन्होंने इससे आगे भी बहुत कुछ कहा है हमें उस पर भी ध्यान देना चाहिए। और अब समय भी वह नहीं रहा, आप कबीरदास नहीं हैं, आप पंद्रहवीं सदी में नहीं रह रहे हैं, इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुके हैं। इसलिए मैं संजय और संजय के बहाने तमाम नौजवानों से यह कहूंगा, अपने अनुभव, अपनी भावना, इसके बिना साहित्य नहीं होता, लेकिन साहित्य परम्परा इसके अध्ययन के बिना भी साहित्य नहीं होता।

साहित्यकार की दूसरी सबसे बड़ी चुनौती या ताकत यह है कि आज की दुनिया में, किसी भी दुनिया में संभवत एक इकोनोमिक्स साहित्य के बिना काम चला सकता है, एक अंथरालॉगिस्ट काम चला सकता है परन्तु साहित्यकार ना अंथरोलॉजी के बिना काम चला सकता है और ना ही इकोनॉमी के बिना। यह जरूर नहीं की वह अंथरोलॉजी और इकोनोमिक्स के जर्नल पढता हो लेकिन इन दोनों का बुनियादी सेंस बहुत ही जरुरी है।