अंकिता जैन की कविताएं

अंकिता जैन की कविताएं वसुधैव कटुम्बकम् की भावना का एक विस्तृत कैनवास की तरह हैं. अंकिता अपनी भावनाओं को जितनी शालीनता से प्रस्तुत कराती हैं उतनी ही शालीनता से सामाजिक विषमताओं और समसामयिकता के गहरे दर्द को उभारती हैं. अंकिता साहित्य के फलक पर अपनी कविता के माध्यम से बहुतेरे रंगों को उभारकर सामने लाती हैं. अंकिता कि कविताओ के पढने के बात ऐसा महसूस होता है कि वह एक ऐसे सफ़र पर हैं जो जीवन-समाज से होकर गुजरता है और पुन: जीवन में ही शामिल हो जाता है. आप भी पढ़िए अंकिता जैन कि कविताएं -


1-    आज का इंसान

दूर रहने पर इंसान की
अहमियत का पता चलता है,
पड़े जरुरत तब
वफ़ादारी का पता चलता है !
हर कोई यहाँ अपने तेरे में लगा है,
जो दूसरों के लिए सोचे
अब एसा इंसान कहाँ मिलता है !
लड़ने को सभी हर पल तैयार हैं,
हल और सुलह से हर कोई बचता है !
अपना अच्छा सोचें या न सोचें पर,
हर पल दूसरों की बुराई के सपने बुनता है !
सिर्फ इसलिए हर इंसान आज,
अपनों के पास होकर भी अपनों के लिए तरसता है !!

2 - आपकी महफिल

आपकी महफिल मे आकर ही अब,
इस दिल को सुकून आता है ।
बिन आपके जीने के ख्याल से,
अब ये दिल दर जाता है ।

क्यू हर ख्याल मे अब सिर्फ्,
आप नज़र आते है ।
 मेरे सारे लफ्ज और दिल कि हर धडकन,
सिर्फ आपका नाम गुनगुनाते है ।

अब तो ये दिल भी मुझे,
आपके नाम से सताता है ।
आपकी महफिल मै आकर ही अब,     
इस दिल को सुकून आता है ।

थी जिस खुशी की बर्षो से चाह,    
अब अपनी होती नज़र आती है ।
अब आपके होने कि आहट ही,    
मेरे बर्षो की प्यास बुझाती है ।

जाने क्यू अब ये दिल,    
आपकी जुदाई से डरता है ।
 ना देंगे कभी वो रुसवाई,    
अब हर पल मुझसे ये कहता है ।

वो कहते है मुझसे , क्यू-    
इतना यकीन तू करती है,
क्या कहू मै जब ये दिल भी जब उन्ही के लिये धडकता है...
आपकी महफिल मे आकर ही अब इस दिल को सुकून मिलता है...॥

3 - चाहत सकून की

हम बेठे थे उस कश्ती में,
जिस कश्ती में पतवार ना थी !
देखी मंजिल उस खंज़र में,
जिस खंज़र में भी धार ना थी !!

सपने तो बहुत सजाने थे,
पर पलकों ने नामंज़ूर किया !
ये उन लम्हों के मंसूबे थे,
कि ख़्वाबों को ताला लगा दिया   !!
चाबी टांगी उस खूँटी पर,
जो खूँटी बिन दीवार क़ी थी !
पाने भी चढ़े उस सीढ़ी पर,
जिस सीढ़ी में कोई लकार ना थी !!

माना अब तक कुछ मिला नहीं,
पर संतुष्टि ऐसा शब्द  मिला !
जो खुदमे ही सम्पूर्ण नहीं, 
जिसने चाहा उसे न कभी आराम मिला !            
हमने भी पाने वो राह चुनी,
जहाँ हर कदम पे दूरी बढ़ती थी !
मंजिल बस होती थी दुगनी,
पर हर साँस पे  उम्र तो  घटती थी !!

अब फिर पाना चाहूँ वो जीवन,
जहाँ थोक में परियाँ मिलती थीं !
कागज़ के फूल भले ही थे,
पर खुशबु असल महकती थी !
पर अब हम बैठ चुके उस कश्ती पर,  
जिस कश्ती में पतवार ना थी !
देखी मंजिल उस खंज़र में,
जिस खंज़र में भी धार ना थी !!

4 - दस्तक

काश  उसने  इस  दिल  पर  दस्तक  ना दी  होती ,
तड़पते  हुए  पंछी  को  धूप में  छाया  ना  दी  होती …
यूँ  हो  जाती खाक  ये  ज़िन्दगी ,
गर  बुझती   हुई  आग  को  हवा  ना  दी  होती …
अब  वो  हमसे  कुछ  इस   तरह  रूठे  हैं ,
लगते  संगीत  के  सब  साज़  झूठे …
लगती  सारी  दुनिया   जैसे   पत्थर  की  बनी  है ,
रगों  में  बहता  खून  भी  लगता  अब  पानी  है …
मैंने  भी  तो  उस  दूर  गगन  को  पाने  की  कोशिश  की  थी ,
वर्ना  पहले  कहाँ -
इस  दिल  में  बेचैनी  और  आँखों  में  नामे  थी …
क्यूँ  दूरी  की  वजह  लगती  एक  पहेली  है ,
अब  तो  तन्हाई  ही  मेरी  सखी  सहेली  है …
मन  की  अब  वो  मेरे  साथ  नहीं ,
मगर  चाहत  दूरियों  की  मोहताज़  नहीं  होती …
बिखरे  हों  जैसे  आज  माला  के  सब  मोती ,
काश  उसने  इस  दिल  पर  दस्तक  ना  दी  होती …

5 - एक परेशानी

आज फिर ढलते सूरज में नाराज़गी है,
बहते दरिया की कल-कल में फिर कोई ख़ामोशी है !
बढ़ रही है रात भी अंधियारे की ओट लेकर,
चाँद तो है जोर पर, मगर कहीं चांदनी नहीं है !!

रास्तों की भीड़ अब, सुनसान में तब्दील हुई,
पेड़ पर लगी आखिरी, हरी पत्ती भी सूख गयी !
साँझ ढलते ही जहाँ लाल पीली रोशनी सी है,
वहां गाड़ियों का बढ़ता शोर तो है, पर आवाज़ नहीं है !!

आज फिर हाल जानने माँ का फ़ोन तो आया था,
खट्टी-मीठी याद बनाने, यारों ने भी बुलाया था !
हँसी तो दिखती है पर खिलखिलाहट नहीं है,
सब कुछ साथ होकर भी, मायूसी मिटती नहीं है !!

दिल और दिमाग का रिश्ता भी ये अजीब सा,
बसेरा एक होकर भी रास्ता न कोई करीब का !
समझाती है सोच सदा पर बेचैनी मानती नहीं है
दोषी तो ये मासूम दिल भी नहीं-
 मगर इसकी ही तो नादानी है की सुकून मिलता नहीं है !!

6 - ज़िन्दगी की हकीकत

आज ज़िन्दगी की हकीकत से एक इसी मुलाक़ात हुई,
मायने समझा दिए जीने के जब उसने ये बात कही !

वो इन्द्रधनुष या पवन गंगा
हो पर्वत या रंग फूल का
नैनों के इस जोड़े से तुमने
जीवन के हर क्षण को देखा
क्या सोचे कभी मायने इनके
ना जाना तो पूछों उनसे
बिन इनके जिनकी दुनिया में हर लम्हा काली रात रही
मायने समझा दिए जीने के जब उसने ये बात कही

एक आंसू पर जान लुटा दे
माँ रब का वो रूप है
घने वृक्ष सी छाया दे
वो पिता जहाँ भी धुप है
बिन इनके क्या होती दुनिया
ना मिले जिन्हें ये पूछो उनसे
जिनकी आँखों में खुशियों को हर पल पूरी करने की चाह रही
मायने समझा दिए जीने के जब उसने ये बात कही

अब क्यूँ हो उदास ये पूछो खुद से
क्या नहीं मिला जो माँगा रब से
आज हिला दी हर जड़ मेरी जब उसने ये सच्चाई कही
मायने समझा दिए जीने के जाने ये केसी बात कही.....

7 - जाने क्यूं

जाने  क्यूँ  वो  हर  पल  खुद  से  जोड़ता  चला  गया ,
बिखरी  माला  का  हर  मोती  पिरोता  चला  गया !
पर  आज  कहने  को  बस  यादें  हैं ,
क्यूँ  की - वो  ज़िन्दगी  को  तन्हा  कर  चला  गया !!

आया  था  वो  हवा  के  इक  झोंके  की  तरह ,
शांत  पेड़  के  हर  पत्ते  को  हिलाकर  चला  गया !
क्या  देगा  ये  उजड़ा  पेड़   किसी  और  को  छाया,
क्यूंकि  –वो  उसकी  ज़िन्दगी  की  जड़ों  को  हिलाकर  चला  गया !!

8 - कहां है रब

वो तुझमे ही समाया है, गर पहचान पाओ तो,
क्यूँ दर-दर यूँ भटकता है, इक बार तो देखले खुदको !
हजारों नाम देकर अब कर दिया विभाजन जिस रब का,
वो शिव है या है खिवैया तेरे भटके हुए अंतर्मन का   !!
ना लड़ लेकर नाम अब उसका, जिसको पहचान भी ना पाया,
देखले इक बार सूरत फिर से अपनी ये, गर मिल जाये कोई दर्पण तो !
दावा है गर मन हुआ सच्चा तो नज़रें खुद से भी मिल ना पाएंगी,
बहाया है रक्त बेवज़ह ये सच पहचान जाएँगी !!
दुआ है मिट जाये सब पहले ही उसके हम सब समझ जाएँ,
अब भी बिगड़ा नहीं है कुछ, करदो ख़त्म झगड़े को !
तेरा शिव है किसी का अल्लाह फर्क इतना सा गर जानो,
मगर उसके लिए सब उसके अपने हैं, बात ये मान जाओ तो !!
रोता है वो इस बात पर आंसू बहाता है,
दर्द सबसे ज्यादा होता है जब कोई अपना मार दे किसी अपने को !
हजारों कर लिए व्रत उपवास जिससे मिलने की चाहत में ,
वो तुझमे ही समाया है , गर पहचान पाओ तो !!

9 - क्या कहूँ

क्या कहूँ आज, है कहने को कोई शब्द नहीं ?
प्रश्न तो हैं बहुत से पर क्यूँ मिलता कोई जबाब नहीं ?

उस दिन जब मिट्टी की खुसबू, आई थी मेरे आँगन से,
हलकी बूंदों ने आकर तब, पूछा था ये मेरे मन से !
आते हैं हम हर वर्ष समय पर,
फिर क्यूँ यहाँ हरा कोई वृक्ष नहीं ?
प्रश्न तो हैं बहुत से पर क्यूँ मिलता कोई जबाब नहीं ?

बागों में खिलती कलियों ने जब मुर्झाना शुरू किया,
उड़ते भंवरों ने आकर तब खड़ा यहाँ ये प्रश्न किया !
खिलना चाहे गर कलियाँ भी तो,
क्यूँ पवन पूर्णता स्वस्थ नहीं ?
प्रश्न तो हैं बहुत से पर क्यूँ मिलता कोई जबाब नहीं ?

पनघट पर जाते जंतु जब बिन मौत वहां मर जाते हैं,
तो उनके साथी-संगी भी आकर ये प्रंश उठाते हैं !
ना है कोई दोष हमारा जब,
फिर क्यूँ हमे जल मिलता स्वक्छ नहीं ?
प्रश्न तो हैं बहुत से पर क्यूँ मिलता कोई जबाब नहीं ?

क्या लिखूं और अब मिलते लिखने को शब्द नहीं ?
दर्द तो बहुत से पर मिलता कोई हमदर्द नहीं !
क्या कहूँ आज, है कहने को कोई शब्द नहीं ?
प्रश्न तो हैं बहुत से पर क्यूँ मिलता कोई जबाब नहीं !