कविता पर ओम निश्चल का वक्तव्य
एक उम्र होती है कविता में प्रवेश की। एक उम्र होती है प्रेम की। एक उम्र होती है जीवन को कवितामय बना लेने की और उस संसार में गार्हस्य्प्र भाव से रमने की। संजय युवा हैं, स्वाभाविक है कि जैसे औरों को वैसे ही राग अनुराग ने उन्हें करीब से छुआ है और इस छुवन ने उन्हें कवि बना कर रख दिया है। जीवन तो रागानुबद्ध हो चुका है पर उसका कवितामय होना अभी शेष है। एक साथ दो दो संग्रहों के साथ उनका कविता की दुनिया में आना यही सिद्ध करता है।जैसा कि यह उम्र बताती है कि उसे क्या चाहिए। हमारी भूख बताती है कि कितनी रोटियों की हमें जरूरत है। संजय अपनी जरूरत समझते हैं। अपने भीतर के कवि की जरूरत समझते हैं। वे जीवन से अभिभूत होते हैं तो बिना कहें बिना गाए नहीं रहते। जैसे कभी गिरिजाकुमार माथुर ने गाया: मेरे युवा आम में नया बौर आया है। खुशबू बहुत है क्योंकि तुमने लगाया है। उनका वश चले तो वे दसों दिशाओं में अपनी कविता का परचम लहरा दें, कविता से अपनी आसक्ति का बखान अजाना न रहने दें। एक गीत का स्थायी याद आता है: तुम्हारे लिए मैं कोई गीत बुन दूँ हमारे लिए कोई सपना बुनो तुम। ये कविताएं इसी पारस्पिरिकता और परस्परावलंबन की कविताएं हैं। ''तुम मेरी आंखों में अपने आंसू लिख दो। मै दर्द लिख दूँगा अपना तुम्हारी छाती पे। '' यह एक साथ जीने एक साथ सपने देखने एक साथ मरने के संकल्प की कविताएं हैं। ये कविताएं बताती हैं कि प्रेम जीवन का महोत्सव है। जैसे कृष्णा सोबती कहती हैं सेक्सद जीवन का महाभाव है। ये कविताएं इस महाभाव का रचनात्मक अनुष्ठान हैं। यहां देह, मन, आत्मा के सारे उद्यम उस प्रेम को पाने जीने और न खोने देने के लिए प्रतिश्रुत दिखते हैं जिसके लिए कवि पहले ही कह गया है: प्यार अगर थामता न पथ पर उंगली इस बीमार उमर की। हर पीड़ा वेश्या बन जाती, हर आंसू आवारा होता।
ऐसा नहीं कि संजय की ये कविताएं पहली बार प्रेम की अनुभूतियों से रूबरू हुई हैं। लगभग सभी कवि प्रेम की पहली पायदान से ही कविता के दुर्गम दुर्ग में प्रवेश करते हैं। यह लगभग हर कवि के काव्याभ्यास की पहली सीढ़ी है। इसी सीढ़ी से होकर वह जीवन के लालित्य को जीता हुआ समय और समाज की दुश्वा रियों तक पहुंचता है। यहॉं दैहिकता उतनी ही प्रबल है जितनी कभी और अभी भी अशोक वाजपेयी के यहां प्रबल है। मुझे इस अर्थ में वे धर्मवीर भारती के इस तर्क के अनुगामी प्रतीत होते हैं कि न हो यह वासना तो जिंदगी की माप कैसे हो। यह कवि भी इसी तर्क के वशीभूत होकर इस संकरी गली में उतरा है जहां दो के अलावा तीसरे की समाई नहीं है। यह उसकी द्वैत से अद्वैत की यात्रा है। उसके लिए देह मंदिर है। पूजाघर है। पर देह से देह तक का यह बखान कवि के भीतर पलते सुकोमल प्रेम का परिचायक तो है पर इस अद्वैत को जीने के बावजूद कविता का श्रृंगार अधूरा रह गया है। कविता वह जो किसी अलभ्य बिम्ब के आलोक में स्मरणीय हो उठे, ऐसा अवसर संजय कम आने देते हैं। एक अर्थ में ये कविताएं सजल हृदय के भावोदगार तो हैं पर आवेगों की वल्गाएं न थमने पर जो निष्कृति कवि की होती है, वैसा आभास यहां बहुधा होता है। पर ऐसे भी क्षणों को यहां कवि ने लक्ष्य किया है जब वह प्रेमिका के माथे पर नदी के-से ठहराव को देख उम्र के ठहराव की बात सोच बैठता है ।
संजय के दोनों कविता संग्रहों का कथ्य लगभग एक-सा है। प्रेम, संबंध, उदासियां, टूटन और जीवन की गोधूलि । लगभग एकालाप में विन्यस्त हैं सारी कविताएं । कवि देह की नग्नता की नुमाइश करते बाजार की आलोचना भी करता है और सांप्रदायिक दंगे व प्रजातांत्रिक त्रासदियों पर भी उंगली उठाता है। पर अंतत: वह खुद भी समग्रत: प्रेम और देह का ही अनुगायक लगता है। प्यार से लबालब भरे होने के बावजूद वह इसे एक जूगनू की तरह क्षणभंगुर सा मानता है। होने का अहसास देकर गुम हो जाने वाला। संजय की ये कविताएं कुल मिलाकर एक युवा चाहत का इज़हार लगती हैं। इनमें कितनी कविता है कितना हृदयोदगार---कहना मुश्किल नहीं है। कविता जिस तरह परंपरा और अनुभव की आंवें में पक कर अनुभूतियों के कच्चे- माल को संवेदना की सघन चासनी में बदलती है, वैसी कविताएं यहां बेहद कम हैं। बल्कि लगता है कि हम एक ही कविता का पारायण यहां कर रहे हैं। यहां तक कि इन कविताओं में संजय की निजता अक्सर तिरोहित नजर आती है, वह निजता जो एक मुहावरे के धक्के के साथ सामने आती है जिसे जगूड़ी कहते हैं, ''हिल गए तो पिल गए'' वाली सक्रिय मुहावरेदारी यहां नजर नहीं आती।
कविता सुगम संगीत नही है न सुगम संगीत को कविता मानने की कोशिश करनी चाहिए। इन कविताओं को मैं आज की युवा कविता के बीच कहां रखना चाहूँगा, यह असमंजस मेरे सामने है। क्योंकि कविता आज वहां पहुंच गयी है जहां उसने अभिव्यक्तिेयों के नए सांचे आविष्कृत किए हैं। हमारे पुरोधा कवि मुक्तिबोध ने यों ही नहीं कहा कि तोड़ने होंगे मठ और गढ सब। अभिव्यक्तिै के खतरे उठाने ही होंगे। संजय की इन कविताओं से अभी नहीं लगता कि अभी उसने अभिव्यजक्ति के खतरे उठाए हैं। कभी एक निरासक्त प्रकृति प्रेमी ने लिखा था: बाले तेरे बालजाल में कैसे उलझा दूँ लोचन। जब कि उसकी उम्र बाले के बालजाल में उलझने की ही थी। निराला ने ''पंत और पल्लव'' में कवि की यह कह कर आलोचना की थी कि यह कविता प्रकृतसम्मत नहीं है। चाहिए तो यह कि वह इस उम्र में बाले के बालजाल से बिंधे। संजय की उम्र तो अभी निश्चंय ही बालजाल में बिंधने की है पर इस वेध्यता में जिस तरह की संवेदना पल्लवित और पुष्पित होनी चाहिए, भाषा के जिस आधुनिक स्वरूप का उद्घाटन होना चाहिए, उसका अभाव दृष्टिगत होता है। प्रेम जैसा भी हो, वैभव भरा या अकिंचन-उसकी अभिव्यक्ति हमारे समय की आधुनिक भाषा-संवेदना में होनी चाहिए। तभी वह ध्यातव्य होगी। हमारी कवि परंपरा में व्याप्त प्रेम और श्रृंगार की कविताएं इसका प्रमाण हैं।
मेरे प्रिय आलोचक प्रभाकर श्रोत्रिय का कहना है कि किसी भी युवा कवि की पहली कृति को फूल की तरह उठाना चाहिए। सो पहली नजर में ये कविताएं मुझे एक युवा कवि की बेकरारी का उदाहरण मालूम होती हैं। ये कविताएं उस संक्रमण से उपजी मालूम होती है, जिनसे कविता का उर्वरक पैदा होता है। इतना तो सच है कि यह कवि जीवन का हामी है। यहां केंद्र में प्रेम है, पर है अभी वह बाहों, सांसों, धड़कनों, छातियों, होठों, नाभि और योनि तक सिमटा हुआ प्रेम ही। यहां उस अनिंद्य प्रेम का स्पर्श कवि कम कर सका है जिससे गुजर कर ही, कविता ही नहीं, जीवन में भी उदात्तता आती है।जिसे कुंवर नारायण जी 'हाशिये का गवाह' में आत्मा की उजास कहते हैं: ''माना गया कि आत्मा का वैभव वह जीवन है जो कभी नहीं मरता/ प्यार ने शरीर में छिपी इसी आत्मा के उजास को जीना चाहा।'' उस उजास की झलक यहां नहीं मिलती। मुझे यकीन है कविता की इस ज़मीन को बरकने के लिए थोड़ा समय मिले तो संजय कविता में ऐसा फूल खिला सकते हैं जब कविता की उसकी क्यारी महकती हुई दिखाई दे।
।। निष्कर्ष ।। प्रेम करना और प्रेम कविता लिखना दोनों दो अलग अलग बातें हैं। हो सकता है आप प्रेम में सफल हों पर कविता में नहीं। हो सकता है कविताएं सिद्ध हों पर प्रेम नहीं। कुछ ऐसे भी होंगे जिनकी न कविता सिद्ध होती है न प्रेम। संजय प्रेम का रसायन समझते हैं पर कविता में उसे इस रूप में नहीं उतार पाते कि लगे कि यह कवि एक समृद्ध कवि-परंपरा का अग्रधावक कवि है। अनेक युवा कवियों के साथ ऐसा ही दिखता है। इसलिए यहां प्रेमिका के होठों का पराग तो है पर गलियों, कस्बों, नगरों की वह धूल धक्कड़ नहीं जिसमें सन कर कविता मिट्टी की महिमा को जान पाती है।