मंजुषा पांडे की कविताएं

मंजुषा पांडे की सामाजिकता की गहरी पैठ है. जिसके माध्यम से समाज के कई उजले और स्याह रंग उभरते रहते हैं. कहीं पर सुख की असीम चाह के बीच उम्मीद की हलकी सी किरण है तो कहीं पर जीवन की छोटी -छोटी खुशिओं के एवज में झलकता गहरा दर्द। मंजुषा अपनी कविताओं में आडम्बर की जगह पर सच का आईना दिखाने की कोशिश करती हैं. और कविताओं के पढ़ते -पढते कई बार यही दर्द आँखों में भी उतर आता है.

(1 ) "कृपया कूड़ा मुझे दें "

उसका रुदन जो किलकारी बन कर गूंजा
सारा गाँव देखने पंहुचा
वो है एक नन्ही कली
उसकी आँखों में मासूमियत पली
छोड़ दूसरे जहाँ को इस जहाँ में आई  है
संग अपने परियों की कहानियां लाई है
वो लगती कितनी प्यारी है
वो तो एक राजकुमारी है
ये एहसास उसे हुआ ही था
अभी माँ के स्पर्श ने छुआ ही था
ये  देख बाप को कोई हर्ष हुआ न था
त्योरियां सबकी  चढ़ने लगी
कानों में फुसफुसाहट बढ़ने लगी
जो उसके अपने थे हुए वो बेगाने
जब सबने कसे ताने
कहाँ से आ गयी मनहूस न जाने
अब बाप तो जीवन भर इसका रोएगा
बेटी तो बोझ है कैसे ढोएगा
दाई  हाय दईया  कहती निकल गयी
खुशियाँ सबकी मातम में बदल गयी
कुछ वोह बूझ रहा था
रास्ता कोई सूझ रहा था,
आधी रात को कम्बल उसने लपेटा
बेदर्द हाथों से बोझ को समेटा
कदमों की टाप में अभी भी वो सो रही थी
देख उसको सूनी सड़क भी रो रही थी
क्या सोच वो उसके घर आयी थी
जहाँ बाप की बाहें उसके लिए परायी थी
कुछ जरा दूर जाकर असमंजस में  वो रुका
"कृपया कूड़ा मुझे दें "उस पर था लिखा
कुछ चूहे जो वहां खटर पटर कर रहे थे
सन्न उस पापी का पाप देख सोच  रहे थे
हे ईश्वर तू ही देख किस कदर इंसान हो गया
जिंदगी को कचरे पर फेंका वो इतना हैवान  हो गया

(2 ) "नारी मन "

बड़ा विचित्र है नारी मन
त्रिया चरित्र ये नारी मन
खुद से खुद को छिपाती
अपने तन को सजाती
सब साज सिंगार रचाती
हया से घिर घिर जाती
जब देखती दर्पण
प्रियतम से रूठ कर
मोतियों सी टूट कर
फर्श पर बिखर गयी जो
अरमान अपने समेटे
अस्तित्व की चादर में लपेटे
सम्मुख सर्वस्व किया अर्पण
ममता की छावं  में
एक छोटे से गावं में
चांदनी के पालने में
लाडले को सुलाती
परियों की कहानियां
मीठी लोरियां सुनाती
नींद को देती आमंत्रण
खनकते हैं हाथ जिन चूड़ियों से
तलवारें पकड़ना भी जान गए
एक फूल से वो अंगार बनी
लोहा सब उसका मान गए
दर्शाती अपना पराक्रम
एक भोली सी सूरत
बनी त्याग की मूरत
समझती सबकी जरूरत
अपने सपनों का घोंटती गला
इच्छाओं का करती दमन
बहती अविरल धारा सी
निर्मल गंगा सी है पावन
मन उसका छोटा सा
ओस की बूँद जितना
समाई है जिसमें सृष्टि
उसमें ओज है इतना
अदभुत है उसका रूप
दुर्लभ शक्तियों का है संगम
बड़ा विचित्र है नारीमन

(3 )" कतराते हैं आईने "

जीवन के होते महंगे दामों के बीच
मौत हो रही इतनी सस्ती है
अविश्वास के इस माहौल में
क्रूरता हर दूसरी आँख में बसती है
कितने भयानक दृश्य हैं
लग रहे कैसे बोल हैं
बन्दूक की गोली नहीं जानती
जीवन कितना अनमोल है
जाने कैसा युग कैसे लोग
कैसी परम्पराएँ आयी हैं
जीने को चंद सांसें
वो भी उधार लाई है
किसने हृदय के प्रांगन में
ऐसा बीज बो दिया
बढ़ते बढ़ते प्रेम का पेड़
जहरीला हो गया
नफरत और लालच की आग में
क्रोध ने जो भृकुटी तानी
अपने ही लहू के हर कतरे
में डूब गयी कोई जिंदगानी
वोह एक दिन मुठ्ठी में लिए
दरवाजे पर हर रोज
कोई दस्तक देता है
आज मेरा है कल तुम्हारा होगा
सोच कर मन दहशत में रो देता है
बेहतर जीवन जीने की ललक
पर बेहतर होने के क्या है मायने
अब जब भी नजरें मिलाना चाहूं
न जाने क्यों कतराते हैं आईन

(4) "बेहद शर्मिंदा हूँ"

तेरा मन नहीं था तो तूने
थाली में रखी रोटी को छोड़ा
नहीं पहनना था तो तूने
अपने  कुर्ते का बटन  तोडा
कितना खुशकिस्मत है
तेरी मर्जी में ही उस की मर्जी है
मेरी तो तेरे से इतनी सी अर्जी है
तेरा कुछ टूटे तो न बर्बाद करना
हाथ से कुछ छूटे तो मुझे याद करना
किस्मत क्या है मैं नहीं जानता हूँ
जिस दाने से पेट भरे उस को ईश्वर मानता हूँ
मेरा हिस्सा संभाल कर रखना
जाने आगे क्या क्या है देखना
में इस बात पर बेहद शर्मिंदा हूँ
की तेरे फेंके हुए जूठन पर जिन्दा हूँ

(5 ) "हाँ धरती माँ"

रुको बंद करो ये सब विनाश
बहुत हो चुका ये सब
तिल तिल जो तड़फ रही है
मैं हूँ वो धरा वो धरती
जिसके आँचल में खेली तुमने
खून की होली
माँ का दर्द न जान सकी बन्दूक
से निकली गोली
किस लिए नफरतों की आग में
झुलस रहे हो
किस चीज को पाने के लिए प्रयास
कर रहे हो
ऐसा क्या है जो मैंने तुम्हें नहीं दिया
सांस लेने को वायु प्यास बुझाने को जल
प्रकृति की क्षमता
अनमोल जीवन का मोल न तुम जान सके
सुन्दरता क्या है ये न पहचान सके
कितना दुर्भाग्य पूर्ण है ये सब
कितना भयानक लग रहा है
आज तुम्हारा चेहरा
एक शैतान सा एक खूनी दरिन्दे सा
तुम्हारी परिभाषा ऐसी नहीं थी
हाँ मानवता यही तो है
इंसानियत प्रेम भाईचारा
शायद यही मैंने तुम्हें सिखाया था
जब तुम छोटे थे
अब तुम बड़े हो गए हो
शायद तुम सब समझते हो
अपने स्वार्थ और नफरत की बेदी पर
धर्म और मजहब को बिठा दिया
ताकि तुम तक कोई बात न पहुंचे
जानते हो कितनी पीड़ा हो रही है
मुझे व्याकुल हो गयी हूँ आज ये देख कर
मेरे अपने बच्चे आपस में लड़ते है
एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए हैं
हताश हो कर गली गली होती उस चौक पर
पहुंचती हूँ जहाँ कितनी बच्चों की लाशें
गिरी हैं मेरे अपने बच्चों की
क्या काला क्या गोरा क्या हिन्दू क्या
मुसलमान सब का खून लाल ही था
जो मुझ में सोखता चला गया
ईश्वर ने मुझे बनाया तुम्हें बनाया
ये धर्म मजहब सिर्फ और सिर्फ
तुमने बनाये अपने अहम के लिए
अपने सहूलियत के लिए नियम
कानून प्रथाएं तुम्हारी दी हुई हैं
इंसान हो कर तुम इंसानियत भूले
कुछ हसरतों ने नफरतों का
दिलों में जहर भरा
साम्प्रदायिकता की आग में जला
एक शहर पूरा का पूरा
कितनी लाशें गिरी ये तो गिनवा दो
कौन हिन्दू कौन मुसलमान ये तो बता दो
तुम नहीं समझ पाओगे क्यों की तुम
माँ नहीं हो हाँ धरती माँ

(6 ) "एक फूल "

ध्वस्त होती शाखाओं के मध्य
एक फूल था खिला
स्वर्णिम रगों की आभा नाचती
परियों सी
हरित मन की बेल पर बरसी
बूँदें बरखा सी
सुदूर पर्वत से आती शोख
चंचल हवा
विचलित तन मन रोम रोम
सिहर उठा
गोद में धूल से लिपटे हुए
धरा
व्यक्त करती उसकी असहनीय
व्यथा
कुम्हलाया उदासियों में था
पड़ा
गुरूर था सुन्दरता देह का
इतना भरा
चहकता इतराता था जो
डाली डाली
वो क्षण गया छिन गयी वो
हसी ठिठोली
गुण गुण करते भँवरे अब
भी गाते हैं
राग मलहार जीवन का
सुनाते हैं  
निर्मल मन की व्याख्या क्षणिक
देह से ऊपर है
अंत समय सब राख धुएं का
गुब्बार भर है

(7 ) "पहली बूंद "

तुम बन के पहली बूंद बारिश की
बादलों से जो टपकती हो
जाने कितनी विघ्न बाधाओं को
पार कर जमीन तक पहुंचती हो
तेज चलती हवाओं का प्रकोप
तुम्हें कितने ही पाटों के बीच
पीस के रख देता हो
मैं जानती हूँ तुम धरा पर अपना
पहला पावं नहीं रखती हो
तुम गिरती हो अनगिनत वृक्षों के
किसी एक पत्ते पर
जो तुन्हें आश्रय देता है वो नरमाहट
देता है जिससे कि तुम बिखर न जाओ
अपनी ठंडक को सहेज कर रख सको
जिसे तुम बादलों से उधार मांग
लाई हो
इस गर्म झुलसती मिटटी के लिए
जिसका कण कण जलते मरुस्थल
में बदल रहा है
उस सूखे गले की तरावट के लिए
जो बरसों बरस एक प्यासा कुआं
बन गया
तुम अनमोल हो जीवन से भी ज्यादा
तुम निर्मल हो पावन हो सुबह की ओस
जितनी
जब शंखों की ध्वनियां कहीं मदिर में
एक साथ गूंज उठती हैं
तब आवाहन होता है ईश्वरीय रचना की
अनुपम ज्योति का
उस ज्योति की एक लौ तुममे भी
प्रकाशमान है
तुम प्रतिपल जीवनदायिनी बन रही हो
गीले मोती जैसी जो बिना सीपियों के
अनवरत अपने आप को समेटे मुझ तक
पहुँच रही है
अपनी अंजुली में भर कर सदा के लिए
तुम्हें अपना बनाना चाहती हूँ
बनोगी न तुम मेरी

(8 ) "तिनका भर उजाला" 

तू है इक मासूम कली
फुटपाथ के आशियाने में पली
लगे तुझे सारी दुनिया भली
जो पुरवाई चमन में चली
वही पवन घूमें तेरी भी गली
सूरज की रौशनी भेद नहीं करती
गट्टर के कोने में भी जा पड़ती
फिर तू क्यों है इतना डरती
दूर भागते हैं तुझसे जो सभी
उस समाज की सोच है सड़ती
वही तेरा भी मालिक है मेरा भी
तेरे जीवन में होगा सवेरा अभी
तिनके भर उजाले की आस लिए
घुप अंधेरे ने है तुझे घेरा अभी
तू ऊपर आसमान को देख जरा
अपने हाथों से ये उंचाई नाप जरा
फिर दिल से एक आवाज लगा
अपनी सोई किस्मत जगा
बस अब तू मन में हिम्मत बांध
न कर और वक्त बर्बाद
विश्वास की धरा पर नीवं डाल
लक्ष्य बना तीर निशाने पर साध
एक समय ऐसा भी आएगा
ग्रहों का खेल भी गडबडा जाएगा
जो नीची निगाह से देखता था कभी
वही जमाना तुझे पलकों पर बिठाएगा

(9 ) "लम्हा लम्हा "

दर्द ए गम की पनाह में
एक तेरी आरजू पलती है |

कई मर्तवा हमारी उम्मीदें  
हमारे दिल को छलती है |

रात के आगोश में बहकती
सुरमई शाम जैसे ढलती है |

गहरे समंदर में डूबती लहरें
साहिल साहिल चलती हैं |

रौनक है शमां महफ़िल की
रौशनी के लिए जलती है |

अपना गम आँखों में लिए
लम्हा लम्हा पिघलती है |

(1 0 ) "खामोश उजाले "

किस्मत का लिखा हम जिंदगी में यूँ उतार चले
ऐसे चेहरों से एक बार नहीं हजार बार मिले

मुमकिन नहीं कि जिंदगी के सफ़र में हादसा न हो
जहां कदम डगमगाए उन राहों से बार बार मिले

गम के अंधेरों की पनाह में कोई आस रही न बाकी
क्यों उजालों से हो गए हैं हमें इतने शिकवे गिले

खामोश नजरें करती हैं बस एक सवाल जिंदगी से
दिलों की नजदीकियों के दर्मियां क्यों रहे फासले

वो पुकारती है मुझे उसकी सिसकियाँ मैं सुनती हूँ
वक्त के हाथों न जाने कितने जख्म बेदर्दी से छिले
 
हर बार अधुरा ख्वाब रात के कोने में छूट जाता है
इस जिंदगी की सुबह के कुछ अजीब हैं सिलसिले

दिल ने कहा चल कहीं  दूर हम आज निकल जाएं
रास न आयी इस दुनिया की रंगीनियां ये महफ़िलें